उस ‘पायदान’ को कोई छू नहीं पाया!

प्रकाश पुरोहित

वरिष्ठ पत्रकार एवं व्यंग्यकार

करीब साठ साल पहले, हमारे लिए बुधवार का मतलब होता था बिनाका गीतमाला और उसके गीत और पायदान का। तब यह रेडियो सिलोन पर आया करता था और हमें यह भी पता नहीं था कि ये सिलोन किस बला का नाम है और यह भी कि ये बिनाका क्या है…! बाद में पता चला टूथपेस्ट है! तब पूरे मोहल्ले में एकाध रेडियो ही हुआ करता था और ठीक वैसा ही दृश्य बनता था, जैसा कि अस्सी के दशक में रामायण और महाभारत देखने के लिए टीवी के लिए होता था। तब यह जरूर पता था कि रेडियो सिलोन शार्ट वेव पर आता है और बड़े रेडियो सेट पर बेहतर सुनाई देता है। उन दिनों ट्रांजिस्टर, बस पैदा ही हो रहे थे और इतने छोटे-छोटे भी होते थे, जैसे आज के मोबाइल। कान में लगाए शख्स से स्कोर पूछने का रिवाज था कि ये तब क्रिकेट कामेंट्री के लिए मुफीद मान लिए गए थे। इस पर रेडियो सिलोन नहीं लगता था, मीडियम वेव ही सुनाई देता था।

अमीन सायानी ने ही थे पायदान से मिलवाया था

बिनाका गीतमाला शुरू होते ही बहनों और भाइयों की वो आवाज आती थी कि सुनने वाले दीवाने हो जाते थे। हमने सिर्फ आवाज ही सुनी थी, देखा नहीं था कभी अमीन सायानी को। पता नहीं था कि कैसे नजर आते हैं, कोई कहता अभिनेता राजकुमार जैसे हैं तो किसी को राजेंद्र कुमार नजर आते थे। हर एक का अपनी पसंद का चेहरा होता था, जो अमीन सायानी पर फिट कर दिया जाता था। उनकी आवाज का ऐसा नशा होता था कि गीत तो यूं ही सुन लिए जाते थे कि सुबह के समय ये गीत रेडियो सिलोन पर रोज बजते थे। अमीन सायानी ही थे, जिन्होंने पायदान से मिलवाया था! हर गीत का अपना पायदान! तब पायदान बोलचाल में भी शामिल हो गया था। सरताज भी यहीं से सुना गया! कोई प्रोग्राम सिर्फ आवाज के लिए पूरा देश कान लगा कर सुनता हो, ऐसा तो फिर कभी नहीं देखा-सुना गया। फिसलती हुई आवाज थी अमीन साब की…, तब यही लगता था कि बड़े होकर इनकी तरह ही बनना है। दुनिया में इससे बेहतर कोई काम नहीं। दिन भर उनकी आवाज की नकल होती रहती थी। हर कोई बड़ा अमीन सायानी समझता है, यह सुनना पसंद करता था। तभी फिल्म फेयर अवार्ड शुरू हुए और अमीन सायानी का चेहरा पहली बार सिनेमा के पर्दे पर देखने को मिला। तब फिल्म के इंटरवल में यह प्रचार-रील दिखाई जाती थी और इसकी इतनी डिमांड रहती थी कि घटिया फिल्म भी इसकी वजह से हिट हो जाती थी। हम जैसे दीवाने तो जैसे फिल्म देखने नहीं, बल्कि अमीन सायानी को ही देखने जाते थे। जब पहली बार उन्हें पर्दे पर बोलते देखा तो लगा, ये तो किसी भी फिल्मी हीरो से बढ़ कर है, इन्हें तो फिल्मों में काम करना चाहिए। जब हम लडक़ों के ये हाल थे तो लड़कियों का तो कहना ही क्या! उनके सपनों में आना-जाना लगा ही रहता था, ऐसा विश्वस्त सूत्रों ने तब बताया था। किताबों में तस्वीर रहती थी और यह अंदाज कि जैसे अब ये मेरे काबू में है। अमीन सायानी सी आवाज की वजह से कई की मोहब्बत की नाव भव-सागर पार कर गई! कट टू –1980! उन दिनों मुंबई में बेरोजगारी और मुफलिसी के मैं मजे ले रहा था।

यकीन नहीं हुआ कि आवाज का ईश्वर सामने है

काम की तलाश थी और सिवाय लिखने के कोई आसान काम आता नहीं था तो सीधे एक रोज कोलाबा में अमीन साब के दफ्तर रेडियो हाउस पहुंच गया। फौरन ही उनसे मुलाकात भी हो गई, जबकि कोई जैक नहीं लगा था। कुछ देर तो यकीन नहीं हुआ कि आवाज का ईश्वर आपके सामने है। तुम मुखातिब भी हो, करीब भी, तुमको देखें… कि तुमसे बात करें जैसी हालत थी! क्या लिख सकते हो? पूछा। कुछ भी, जो आप चाहें। कोई प्रोग्राम सुनते हो? रेडियो ही नहीं है, सुनें कहां से, पेइंग गेस्ट हूं, एक कमरे में चार। फिर… कैसे होगा? उन्होंने मुझ से ही पूछा। आप प्रोग्राम के टेप यहीं सुनवा दीजिये, सुबह से रात तक सुनता रहूंगा और लिख दूंगा। अमीन साब ने उनकी सहायक सलमा को बुलाया और कहा इन्हें स्टूडियो ले जाओ और जितनी देर सुनना चाहें, टेप देती रहना… और हां, चाय भी। उस रोज करीब छह-सात घंटे टेप सुने। तब अमीन साब से कहा मोदी संगीत कहानी लिख सकता हूं अभी। उन्होंने कागज दिलवाए और अलग बैठा दिया। जब लिख लिया तो अमीन साब मुझे लेकर दूसरे कमरे में गए, जहां एक महिला लुंगी-कुर्ते में बैठी थी और एक के बाद एक सिगरेट धुनक रही थीं। ये रमा सायानी (पत्नी) थीं।

अमीन सायानी की सफलता के पीछे थी उनकी पत्नी

उनसे मिलवाया और मेरा लिखा उन्हें दिया। रमाजी ने उड़ती नजर डाली और बैठने को कहा। फिर लाल पेन से मेरे लिखे को दुरुस्त करने लगीं। संपादक राजेंद्र माथुर के बाद किसी की एडिटिंग का मुझ पर असर हुआ तो रमाजी। वाकई अपने लिखे पर शर्म आई, लेकिन रमाजी ने हौसला दिया लिख लोगे, और कोशिश करो। तब समझ आया कि अमीन सायानी की सफलता के पीछे जो महिला खड़ी थी और वह थी उनकी पत्नी। रमाजी कुर्सी पर बैठी रहती थीं और अमीन साब खड़े रह कर बात करते थे। पत्नी का इतना सम्मान देखने का यह पहला ही मौका था शायद। फिर तो काम चल निकला और तब करीब दो साल अमीन साब के लिए खूब लिखा! हर दिन बैठक होती, स्क्रिप्ट पर बहस होती, लेखकों की पूरी टीम होती थी और अमीन साब सभी की सुनते थे, मगर रमाजी की मर्जी के बगैर कुछ नहीं होता था, अंतिम फैसला उनका ही होता था। तब मोदी के मतवाले राही, गीतों भरी कहानी, एस. कुमार का फिल्मी मुकदमा और ना जाने कितने प्रोग्राम लिखे। तब एक स्क्रिप्ट के छह सौ रुपए मिलते थे और जब मैंने इंडियन एक्सप्रेस छोड़ा था तो वेतन नौ सौ रुपए माहवार था। अगर महीने भर में चार भी प्रोग्राम लिख दिए तो ढाई हजार अपने, यानी मुफलिसी से निकल कर अय्याशी तक पहुंच गए थे। अमीन साब ने ही बताया था कि पहली बार जब रमा ने मेरी आवाज सुनी थी तो चिल्ला पड़ी थी कि कौन कमबख्त है ये, जिसे ना हिंदी आती है ना इंग्लिश। रेडियो बंद करो। यह बात किसी नजदीकी ने अमीन साब को बता दी, फिर क्या था, अमीन सायानी पहुंच गए नाराज महिला से मिलने। रमाजी ने कहा- तुम्हारी आवाज में दोष नहीं है, बस तलफ्फुज गलत है, उसे ठीक करो। रमाजी से बेहतर कौन हो सकता था।

सारेगामा कारवां अमीन सायानी की आवाज को जिंदा करने की अच्छी कोशिश

अमीन साब लगभग रोज आने लगे सबक लेने और एक दिन शादी का मन भी जाहिर कर दिया। आवाज को जैसे अंदाज मिल गया और फिर यह जोड़ी सातवें आसमान पर थी। किसी फिल्म-स्टार से बड़ा नाम था अमीन सायानी का, जिन्हें देखने फिल्म-स्टार भी खड़े रहते थे। बिनाका गीतमाला बाद में सिबाका हो गई और सिलोन तो श्रीलंका हो गया। कुछ साल पहले कोलंबो में रेडियो सिलोन के दफ्तर गया था, तब तो वहां ऐसे भी लोग नहीं थे, जो गुजरे चमकदार वक्त के गवाह रहे हों, मगर उन्हें भी अमीन सायानी याद रहे कैसे हैं, बहुत दिनों से उनकी आवाज नहीं सुनी। वहां कुल जमा छह-सात लोग काम कर रहे थे। सरकारी दफ्तर जैसा माहौल था वहां! सारेगामा कारवां ने अमीन सायानी की आवाज और उस जमाने को फिर से जिंदा करने की अच्छी कोशिश की है, सुनिएगा कभी!
(लेखक ये निजी विचार हैं)