इंदौर शहर में मंगलवार को अनंत चतुर्दशी के अवसर पर मिलों से भव्य झांकियां निकाली जाएंगी, जो हर साल की तरह इस बार भी दर्शकों से वाहवाही बटोरेंगी। हालांकि, इन झांकियों के निर्माण में अहम योगदान देने वाले कलाकार अक्सर गुमनाम रह जाते हैं। यह वही कलाकार हैं जो अपनी सृजनात्मकता, मेहनत, और तकनीक के माध्यम से बेजान पुतलों को सजीव बना देते हैं, और उनके इस योगदान से ही शहर की यह पुरानी परंपरा जीवित है। इंदौर में झांकियों की इस परंपरा की शुरुआत वर्ष 1923 में सर सेठ हुकमचंद ने हुकमचंद मिल से की थी। यह परंपरा अब भी पूरी धूमधाम से जारी है, और हर साल नई-नई झांकियों के माध्यम से कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं।
झांकी कलाकार सुभाष जरिया, जो पिछले 40 सालों से झांकियां बना रहे हैं, बताते हैं कि इस दौरान काफी बदलाव आया है। पहले के समय में झांकियों के निर्माण के लिए मिल की ओर से 16 से अधिक मजदूर उपलब्ध कराए जाते थे, और सारा सामान भी मिल की ओर से ही दिया जाता था। उस समय मोटर और अन्य आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल नहीं होता था, और झांकियों को बनाने की प्रक्रिया अधिक मेहनत और साधारण तकनीकों पर निर्भर होती थी। आज के दौर में तकनीक के साथ-साथ सामग्री और झांकी बनाने के तरीकों में भी बदलाव आ चुका है, जिससे झांकियां अधिक सजीव और प्रभावी दिखाई देती हैं।
सुभाष जरिया बताते हैं कि पहले के समय में झांकियों के संचालन के लिए मजदूर रातभर काम करते थे। उस समय ज्यादातर काम कपड़े का होता था, जिससे झांकियों को सजाया जाता था। लेकिन अब समय के साथ बदलाव आ गया है, और कपड़े की जगह फ्लेक्स का उपयोग होने लगा है, जो अधिक टिकाऊ और आकर्षक होता है। इसके अलावा, महंगाई में भी भारी वृद्धि हुई है। पहले जहां 15 रुपये प्रति घनफीट लकड़ी मिलती थी, आज उसकी कीमत 800 रुपये तक पहुंच गई है जिससे झांकियों के निर्माण की लागत भी काफी बढ़ गई है। इसने झांकी बनाने की प्रक्रिया को पहले से कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण बना दिया है।
सुभाष जरिया जैसे समर्पित कलाकार इस परंपरा को जीवित रखने के लिए लगातार मेहनत कर रहे हैं, ताकि यह लुप्त न हो जाए। वर्तमान में एक झांकी तैयार करने में 15 से अधिक लोग शामिल होते हैं, और इसे पूरी तरह से तैयार करने में डेढ़ से दो महीने का समय लगता है। झांकी निर्माण की बढ़ती लागत को देखते हुए, आज एक झांकी बनाने में लगभग डेढ़ से दो लाख रुपये का खर्च आता है। इसके बावजूद, ये कलाकार अपनी कला और परंपरा को जारी रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं, ताकि शहर की सांस्कृतिक धरोहर बनी रहे।
राजतिलक वर्मा, जो पिछले 50 वर्षों से झांकी निर्माण कर रहे हैं, बताते हैं कि वे इस परंपरा में अपनी पीढ़ियों से लगे हुए हैं। उन्होंने अपने पिता से झांकी बनाना सीखा। भले ही अब मिलें बंद हो चुकी हैं, लेकिन झांकी बनाने की परंपरा जारी है। वर्मा जी के अनुसार, झांकी निर्माण में समय के साथ बड़ा बदलाव आया है। पहले घास-फूंस और प्राकृतिक सामग्री का उपयोग किया जाता था, लेकिन अब फाइबर और थर्मोकोल जैसी आधुनिक सामग्रियों ने काम को आसान कर दिया है। जब मिलें चालू थीं, तब झांकी बनाने के लिए अधिकतर सामान मिल से ही उपलब्ध हो जाता था, लेकिन अब सारा सामान बाजार से खरीदना पड़ता है जिससे निर्माण प्रक्रिया अधिक महंगी और चुनौतीपूर्ण हो गई है।