प्रखर – वाणी
सड़कें बनती है फिर खुदती है ये देख जनता को आता है ताव…न जाने क्यों होता है शहरों में विभागों के बीच समन्वय का अभाव…विकास की नव गाथा लिखने वाले शहर एक अजीब षड्यंत्र का शिकार हो रहे हैं…विकास के नाम पर बनी हुई सड़कों के कोने कोने खुदाई से बेकार हो रहे हैं…एक विभाग सड़क बनाता है उसके बाद दूसरा विभाग उसको उखाड़ता है…जैसे स्वच्छ शहर में एक कचरा फैंकता है दूसरा उसे झाड़ता है…ये दौड़ बिल्ली चूहा आया का खेल क्यों होता है…गलती किसी की जिस पर आम नागरिक का नयन खून के आंसू भिगोता है…कभी कभी तो लगता है कि ये भी किसी साजिश के तहत होता है…पहले कीचड़ फैलाने वाला बाद में कीचड़ धोता है…विकास की जब जब भी गाथा लिखी जाती है…उस पर अर्थ के विभाजन की तकनीक सीखी जाती है…कितनी राशि का विकास कार्य है और कितना सम्भावित व्यय…किसको कितना बांटना है इस पर कभी होता नहीं संशय…जितना अधिक विकास होगा उतना अधिक बजट होगा…जितना अधिक बजट होगा उतना अधिक बंदरबांट झंझट होगा…इसलिए विकास की गंगौत्री बहाकर पांच सालाना कड़की दूर की जाए…जोड़कर , उखाड़कर फिर बनाने हेतु सत्ता की नीति मजबूर की जाए…गड्ढे खोदने और भरने के मजदूरों के काम कोई नए नहीं हैं…खोदने व भरने की कहावतों से ये पैगाम गए नहीं है…कभी समन्वय का अभाव तो कभी योजनाओं में कमी इसका मुख्य कारण है…हर कार्य को अंजाम देने के पहले उसके हर पहलू पर चिंतन समस्या का निवारण है…विकास कार्य होने तक वैकल्पिक व्यवस्थाओं पर मंथन पहले हो ये आवश्यक है…विभिन्न संकटों से घिरे नागरिकों का दर्द बने सम सामयक है…एक विभाग गड्ढा करे दूसरा विभाग बनी सड़क उखाड़े…ऐसी गैर नियोजित दास्तान पर भी क्यों बजते हैं विकास के नगाड़े…बड़े स्तर पर जवाबदार लोग आत्ममंथन कर नीति बनाएं…उसके क्रियान्वयन हेतु भी चिंतनशील सूझबूझ धारी कर्मचारी लगाएं…