गई winter से, नई सर्दियों तक…!


प्रकाश पुरोहित
वरिष्ठ पत्रकार एवं व्यंग्यकार

पिछले साल सितंबर-अक्टूबर की ही बात है। इसी सडक़ पर रोज शाम घूमते हुए युवा पति-पत्नी को देखा करता था। अभी तो गुलाबी ठंड ( winter ) भी शुरू नहीं हुई थी, लेकिन दोनों इतने इंतजाम से घूमने निकलते थे कि जैसे बर्फ पड़ रही हो। बाकी शरीर तो गरम कपड़ों से ढंका ही रहता था, सिर पर भी गरम कनटोपा लगाए रहते थे। अब रोज ही आमना-सामना होता था। देखता, दोनों रास्ते भर चुहलबाजी और मस्ती-मजाक करते, खूब हंसते और आसपास से गुजर रहे लोगों से बेखबर रहते। लगता था, जैसे दोनों की देर से शादी हुई है, क्योंकि उम्र यही कोई तीस-बत्तीस की रही होगी।

winter में ज्यादा कपड़े पहनने पर लगती है ज्यादा सर्दी

गरमी का तो क्या है ना कि किसी को ज्यादा लगती है तो उसे देख कर आपको गरमी ज्यादा नहीं लगने लगती, लेकिन सर्दी ( winter) में यह तासीर है कि कोई अगर ज्यादा गरम कपड़े पहने है तो आपको भी सर्दी सताने लगती या लगता है आप में ही तो कुछ ज्यादा गरमी है कि सर्दी नहीं लग रही है। इसीलिए इन दोनों को देखकर कौतूहल तो रहता है कि ये किस प्रदेश के हैं, जिन्हें यहां इतनी सर्दी लगती है, जबकि यह तो मालवा का पठार है, यहां मौसम की हिम्मत ही नहीं होती है कि किसी से ज्यादती कर सके। अब यदि रोज ही नजरें मिलने लगें तो एक दिन ऐसा आ ही जाता है कि एक-दूसरे को देख कर मुस्कान इधर से उधर होने लगती है!

अब मुस्कान से रन-वे बनने लगा तो फिर धीरे-धीरे बातों का ‘पुष्पक’ भी उड़ान भरने लगा। बात नमस्ते से शुरू हुई। पूछना तो चाहता था कि भाई इतनी भी सर्दी नहीं है, किस दिशा से आए हो, तुम्हें देख कर तो मुझे भी सर्दी लगने लगती है। दोनों तेज-तेज चलते थे और बातें भी करते जाते थे। मुस्कुराहट उनके चेहरे पर कब्जा जमाए रहती थी। फिर एक रोज दोनों जब सामने से आ रहे थे तो मुझे देख कर कुछ ठिठक गए। नमस्कार-चमत्कार के बाद पति ने पूछा ‘आप यहीं के हैं?’ जवाब देने पर फिर पूछा ‘यहां कब से आ रहे हैं, घर कहां है, क्या रिटायर हो गए…’ और बाकी भी ना जाने कितने सवाल, मगर ऐसा कुछ नहीं, जो नया हो। आम बातचीत की जैसे शुरुआत होती है ना, ठीक वैसे ही।बस, यूं ही हर दिन कुछ मिनट के लिए आमना-सामना, कुछ बातें और फिर अपने-अपने रास्ते। इसी बातचीत में पता चला कि लडक़ा तो पुलिस में है और खिलाड़ी है। छत्तीसगढ़ के किसी गांव से है और लडक़ी हरियाणा से है। अरेंज मैरिज है, लडक़ी भी खिलाड़ी रही है और तेज दौड़ा करती थी। कुश्ती लडऩा चाहती थी, लेकिन सवा पसली की होने से घरवालों ने मंजूरी नहीं दी। कुछ समय पहले ही यहां इस शहर में आए हैं। जब इतनी अच्छी बात शुरू हो गई तो यह पूछ लेना तो बहुत ही आसान होता कि तुम दोनों को इतनी ज्यादा सर्दी क्यों लगती है, जवान खून है, नई-नई शादी है, ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए, लेकिन अपनी सीमा से आगे बढऩे की हिम्मत नहीं हुई कि किसी का अपना शरीर है, अपने को क्या। उन्हें यूं ही मस्ती में देखना अच्छा-सा लगता रहा। यह सिलसिला करीब फरवरी के आखिर तक चलता रहा।
फिर उनका आना एकदम बंद हो गया। कुछ दिन तो उनकी तलाश में नजरें इधर-उधर दौड़ती भी रहीं, कभी मन को भी समझाया कि गए होंगे घर-परिवार में! कहां जाएंगे! दोनों जब तक आते रहे, कभी गैर-हाजिर नहीं रहे। मैं तो फिर भी तड़ी मार लेता हूं, लेकिन उनका एक दिन भी नागा नहीं होता। वक्त गुजरता रहा और धीरे-धीरे दोनों का इंतजार भी गायब होने लगा। फिर तो कभी विचार में भी नहीं आते थे। कह सकते हैं उस सडक़ पर उनकी धुंधली-सी तस्वीर भी अब बाकी नहीं रही थी। तब तो उनके नाम भी याद थे, लेकिन साल भर के वक्फे ने वो भी बिला दिए। नए चेहरे और नए रिश्ते पनपने लगे, शाम को घुमाने वाली उस सडक़ पर।
तभी, यानी अभी कुछ रोज पहले ही मैं अपनी धुन में खरामा-खरामा चला जा रहा था कि सामने से आ रहे जोड़े ने ‘नमस्ते अंकलजी’ कहा तो चौंक कर देखा। कुछ जाने-पहचाने चेहरे लगे, ‘नमस्ते’ कह कर उन्हें पहचानने की कोशिश करने लगा। उसी समय उनकी जान-पहचान वाली मुस्कुराहट ने परिचय करा दिया। ‘बहुत दिनों बाद आए तुम लोग, कैसे हो, अच्छा मिलते हैं कल’ जैसे आम संवाद इधर-उधर हुए और हम अपने-अपने रास्ते। फिर तो हर रोज दुआ-सलाम और मुस्कान का आदान-प्रदान। कुछ बदलाव नजर आ रहा था लडक़ी में। याद आया, उसका नाम किरण है और लडक़े का प्रवीण। याद नहीं आ रहा था कि पिछली बार के हुलिए और इस बार के बदलाव में क्या फर्क है। अब सीधे-सीधे पूछ भी तो नहीं सकते। फिर लगभग साल भर का वक्त भी तो बीच में से गुजर गया!
कल ही मुझ से रहा नहीं गया और जैसे ही दोनों मुस्कुराते हुए सामने आ खड़े हुए ‘किरण तुम में कुछ बदलाव देख रहा हूं, क्या तुमने बाल सेट करवा लिए हैं, हिरोइन लग रही हो बिलकुल!’ वह हंसने लगी। फिर बोली ‘पिछली बार तो आपने मेरे बाल देखे ही नहीं थे, कनटोपा लगाए रहते थे हम।’ मुझे याद आया, अरे हां यही तो आकर्षण था कि दोनों कनटोप लगाए रहते थे तो बाल कहां से नजर आते।
मेरी आंखों में उग रहे सवाल समझ गई और बताने लगी ‘अंकलजी, दरअसल, मुझे कैंसर हो गया था। ऑपरेशन के बाद रेडिएशन और किमोथेरेपी से सिर के बाल एकदम चले गए थे। तब हम एकदम गंजे हो गए थे तो बाहर निकलते समय कनटोप लगा लिया करते थे, तो आपने हमारे बाल तो अब देखे हैं’ बताते हुए भी उसकी मुस्कुराहट कहीं छिपने की कोशिश नहीं कर रही थी। ‘और फिर ये प्रवीण, ये भी तो टोपा लगाया रहते थे?’ ‘हां ये कहने लगे, जब तक तुम्हारे बाल नहीं आ जाते, मैं भी सिर पर बाल नहीं आने दूंगा। मैं तो सिर्फ घूमने ही यहां आती थी, तब लगाती थी, ये तो पूरे समय लगाए रहते थे।’ मैंने देखा, प्रवीण के घुंघराले काले बाल हवा में लहरा रहे थे। ठंड अभी बढ़ी नहीं थी, मगर ना जाने क्यों मुझे धुजनी-सी भरने लगी और मैंने तय किया, कल से कनटोप लगाऊंगा!
(लेखक के ये निजी विचार हैं)