क्यों नहीं थम पा रही है महंगाई की मार…गरीब व मध्यमवर्ग तो अब हो गया है लाचार…खलने लगा है अब वस्तुओं के मूल्यों का भार…समय रहते नीति बनाकर कुछ तो करो सरकार…आम उपभोक्ता वस्तुएं आसमान पर है…फल , सब्जी , भाजी तक ऊंची उड़ान पर है…दाल – रोटी मिल रही है अब तो ये डायलॉग भी छलावा है…महंगा हो रहा परिधान व विलासिता की श्रेणी में पहनावा है…
उत्पादन भरपूर है मगर दाम घटते नहीं…बारिश बन्द हो जाये तो भी महंगाई के बादल छंटते नहीं…उत्पादक व व्यापारी की सोच में ही शामिल है एकबार भाव बढ़ गए तो बढ़ गए घटेंगे नहीं…किसी भी तरह से मूल्यों में कमी आ जाये , मुनाफा बढ़ा लेंगे , मूल्यवृद्धि की राह से हटेंगे नहीं…सरकार का नियंत्रण है नहीं क्योंकि उद्यमी अर्थ प्रदाता है…करोड़ों की जमीन को रोड़ों पर रखने वाला किसान ही अन्नदाता है…पेट्रोल के मूल्य बढ़ने पर विरोध हो तो घिसा पीटा डायलॉग आएगा…देश – धर्म पर मंडराता खतरा दिख नहीं रहा और इनको पेट्रोल का भाव सताएगा…कभी किसी शायर ने लिखा है – “तन की तपन मन को बेजार बना देती है । बाग के बाग को बीमार बना देती है ।
…अरे ओ गरीबों को देशभक्ति सिखाने वालों , पेट की भूख इंसान को गुनाहगार बना देती है ।” शेर की ये पंक्तियां कहती है कि महंगाई जीवन को भंगार बना देती है…उस व्यक्ति का दर्द समझो जिसको रोज कमाने और लगाने की हकीकत तार – तार बना देती है…मरीज को मर्ज से ज्यादा कर्ज की फिकर बीमार बना देती है…जिन्होंने महंगाई का असली चेहरा नहीं देखा वो अस्पताल के दर्शन करे…कई परिवारों ने मौतों के उपरांत भी चिकित्सालय से लाश न मिलने पर प्रदर्शन करे…जिसने देख लिया है हॉस्पिटल का भारी भरकम बिल…हाथ में आते ही दहल उठता है उसका नाजुक दिल…
महंगाई में पेट पालना तो नामुमकिन हो रहा ऊपर से दवाई का खर्चा…कितने ही लाचार होकर फांसी पर झूले हैं बाद में होती है सिर्फ चर्चा…वस्तुओं की कीमतें जब हैसियत के पार हो जाती है…तब कर्ज लेकर आवश्यकताओं की पूर्ति बेशुमार हो जाती है…कर्ज का ब्याज चुकाते चुकाते कितनी ही पीढियां चली गई…मूल तो वैसा ही बना रहा और ब्याज में ही जनता छली गई…पेट्रोलियम उत्पादों के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मूल्य घटते हैं तो भी यहां कम नहीं होते…बढाते समय लमसम बढ़ते हैं घटाते समय कम्पनी वाले खून के आंसू रोते हैं…
सरकार भी निर्भर है कम्पनियों के निर्णय पर दाम घटने पर श्रेय लेते हैं…दाम बढाते हैं तो बगले झांककर विरोधियों की टोह लेते हैं…कीमतें बढ़ गई तो बढ़ गई…आसमान में चढ़ गई तो चढ़ गई…अब उतरने का नाम नहीं लेती…घर का बजट बिगाड़कर बस आफत ही देती…मूल्य निर्धारण में ईमानदारी हो ये जरूरी है…तय मूल्यों पर उत्पाद खरीदना उपभोक्ता की मजबूरी है…मूल्य नियंत्रण का एक तरीका ये भी हो सकता है…अधिकतम खुदरा मूल्य के साथ लागत मूल्य लिखी जाना अनिवार्य हो सकता है…दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा…ग्राहक को भी मुनाफे का गणित पता चल जाएगा ।