ओमप्रकाश श्रीवास्तव
आईएएस अधिकारी तथा
धर्म, दर्शन और अध्यात्म के साधक
आजकल हिन्दू धर्म ( Religion ) के कथावाचकों की बहार आई हुई है। विशाल पांडाल, विचित्र बेशभूषा में लकदक महाराज, सशस्त्र अंगरक्षक, टीवी पर सीधा प्रसारण, लाखों में दक्षिणा और यह देखकर हजारों की संख्या में श्रद्धा से दबे जा रहे श्रोता। जब प्रवचन शुरू होता है तो वही – ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या – परमात्मा ही सत्य है, संसार माया है इसलिए आप मोह माया छोडक़र बाबा के माध्यम से प्रभु के चरणों में समर्पित हो जाओ। बाबा का माध्यम क्या है वह जहाँ रहते हैं उसे धाम घोषित कर दिया है, उस धाम में बार-बार आओ, पर्चे पर लिखे गये ऐसे भ्रामक वाक्य सुनो जो बीमारी से लेकर विवाह, रोजगार और सास-बहू के झगड़े तक सब पर लागू हो सकते हैं और बाँटे जा रहे चमत्कारी ताबीज, रुद्राक्ष आदि ग्रहण करो। इस सबके पीछे तगड़ा अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र है। राजनेता ऐसे लोगों को बढ़ावा देते हैं क्योंकि उनके विवेकहीन अनुयायियों का वोट बैंक में बदलना आसान होता है। विवेक बुद्धि युक्त व्यक्ति के मन में प्रश्न उत्पन्न होता है कि हमारे लिए तो मोह-माया का त्याग और स्वयं के लिए संसार के सारे भोगों का एकत्रण यहीं से आलोचना शुरू होती है और लोग धर्म को पाखंड समझने लगते हैं।
Religion की सारगर्भित परिभाषा कणाद् ऋषि ने दी
इसका कारण है सनातनधर्म की प्रमाणिक समझ का अभाव। धर्म ( Religion ) की सारगर्भित परिभाषा कणाद् ऋषि ने दी है – यतोभ्युदय नि:श्रेयससिद्धि: स धर्म: – अर्थात् जिससे अभ्युदय (भौतिक प्रगति) और निश्रेयस (आत्मिक कल्याण) होता हो वही धर्म है। तुलसीदास जी लिखते हैं – सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुपति पुर जाहीं।। विश्वास पर आधारित सेमेटिक धर्म जैसे इस्लाम, ईसाई और यहूदी कहते हैं कि इस जीवन में धार्मिक प्रथाओं का पालन करोगे तो दूसरे लोक या जन्नत में अमुक सुख मिलेंगे। परंतु सनातनधर्म के अनुसार भौतिक सुख तो इस संसार में मिलेंगे ही, मोक्ष भी यहीं और अभी उपलब्ध हैं – अभितो ब्रह्मनिर्वाणं (गीता 5.26)। सनातनधर्म जिज्ञासा से प्रारंभ होता है और अनुभव से प्राप्त समाधान पर पूर्ण होता है। ब्रह्मसूत्र का पहला वाक्य है – अथातो धर्म जिज्ञासा। सनातनधर्म में धर्मग्रंथ पर, साधना की पद्धति पर, ईश्वर के अस्तित्त्व पर कभी भी प्रश्न किये जा सकते हैं और यह ईशनिन्दा नहीं कहलाता। इसे तो प्रोत्साहित किया जाता है। अर्जुन ने गीता में कृष्ण से प्रश्न-प्रतिप्रश्न किये और भगवान् कृष्ण ने उत्तर दिये। कठोपनिषद में नचिकेता ने अपने पिता के धार्मिक पाखंड पर प्रश्न उठाए।
शास्त्र या गुरु जो बताते हैं उस पर प्रारंभिक श्रद्धा आवश्यक है। तुलसीदास जी ने तो शिवपार्वती को ‘श्रद्धाविश्वासरूपिणौ’ कहा है जिनके बिना धर्म नहीं हो सकता। गीता में भी कहा है कि श्रद्धा से रहित व्यक्ति नष्ट हो जाता है (4.40)। परंतु यह अंधश्रद्धा नहीं है। यह श्रद्धा है गुरु, शास्त्र और ईश्वर में प्रारंभ में ही दोषदर्शन की प्रवृत्ति को रोकना। यदि प्रारंभ से ही हर बात पर शंका करने लगेंगे तो उसकी सत्यता का अनुभव नहीं कर पाएँगे। गीता में स्थान-स्थान पर बुद्धि विवेक के ऊपर जितना जोर दिया गया है वैसा किसी भी अन्य धर्मग्रंथ में नहीं है। इसलिए सनातनधर्म की यात्रा श्रद्धा से प्रारंभ होकर कर्म (साधना, पुरुषार्थ) से होते हुए अनुभूति तक जाती है।
हिन्दू जीवनचर्या का प्रथम चरण है तामसिक वृत्ति से बाहर निकलना। तमस का अर्थ है अज्ञान, आलस्य, अकर्मण्यता, अंधकार। इनमें डूबे व्यक्ति को पहले कर्म करना चाहिए। यह कर्म भले ही स्वार्थपूर्ण ही क्यों न हों। वेदों का प्रारंभिक भाग तो कर्मकाण्ड ही है जो सुख भोग के लिए किया जाता है। गीता के प्रारंभ में ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन को हृदय की दुर्बलता त्याग कर पुरुषार्थ करने का आह्वान किया – क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं त्यक्तोतिष्ठ परंतप (2.3)। स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं कि गीता की केवल यह पंक्ति ही गीता के रास्ते पर चलाने के लिए पर्याप्त है। गीता कहती है कि योग के मार्ग पर जाने वाले को कर्म करना आवश्यक है (6.3)। इस प्रकार पुरुषार्थ और कर्म प्राथमिक आवश्कता है।
कर्म से जीवन में गति आती है, मानसिक और शारीरिक सक्रियता आती है। यह रजोगुण के लक्षण हैं। इस स्थिति में मनुष्य नई कामनाएँ करता है और उनकी पूर्ति के प्रयास करता है। इसमें जीवन के संघर्ष, द्वंद्व व तनावों से सामना होता है। यह अनुभव होता है कि कोई भी कामना पूर्ति कुछ समय तक ही सुख देती है फिर उसका स्थान नई कामना ले लेती है और फिर वही दुष्चक्र प्रारंभ हो जाता है। कई ऐसी कामनाएँ होती हैं जो पूरे पुरुषार्थ से काम करने पर भी पूरी नहीं होतीं। तब मनुष्य को सृष्टि में अपनी तुच्छता और असमर्थता समझ में आती है और वह ईश्वर से सहयोग की प्रार्थना करता है। उसमें दूसरों को अपने जैसा समझने, उनका भला करने और सहयोग करने का भाव आता है। ऐसे कर्मों को गीता में यज्ञ कहा गया है। यह रजोगुण से सतोगुण में प्रवेश है। इस अवस्था में भगवान् कहते हैं कि तुम मेरी ओर से, मेरे एजेंट के रूप में काम करो – निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन (11.33)। इसके बाद मनुष्य को अनुभव होता है कि वह निमित्त अवश्य है परंतु कर्ता भी स्वयं है। तब वह इससे भी मुक्ति चाहता है और जीवन का सारा भार भगवान् पर छोड़ देता है – सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज (18.66) । इस अवस्था में वह तीनों गुणों से परे हो जाता है और उसके सारे कर्म ईश्वर प्रेरणा से संचालित होने लगते हैं। अब वह कर्म करता नहीं है उसके माध्यम से कर्म होने लगते हैं। यह कर्मयोग की सर्वोच्च स्थिति है। इसी अवस्था को प्राप्त करने का विचार वेदों के अंतिम भाग ‘उपनिषद’ में किया गया है ।
यह संग्रह से त्याग तक की यात्रा है। जीवन के चार आश्रम भी इसी क्रम में बने हैं। पहले 25 वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम में मेहनत करना, सेवा करना, विद्याध्ययन करना है। इसमें प्रकृति प्रदत्त तमस (आलस्य, अकर्मण्यता की स्वाभाविक प्रवृत्ति) समाप्त होती है। फिर 50 वर्ष की अवस्था तक गृहस्थ आश्रम में ज्ञान का व्यवहारिक उपयोग करना, संसार के उत्पादन में योगदान देना, धन संपत्ति अर्जित करके कामनाओं की पूर्ति करना है। यह रजोगुण की अवस्था है। फिर शुरू होती है वानप्रस्थ अवस्था जिसमें संसार से पृथक् होने की तैयारी, समाज को अपने अनुभवों से मार्गदर्शन देना शामिल है। यह सतोगुण की अवस्था है। इसके बाद संन्यास आश्रम आता है जिसमें सब कुछ त्यागकर एकमात्र ईश्वर के लक्ष्य के लिए साधना करना है। यह तीनों गुणों से पार जाने की अवस्था है। गीता में भी भगवान् ने अर्जुन से ऐसा ही आह्वान किया है – निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन (2.45)।
सारे वैदिक ग्रंथ इसी जीवनचर्या को अनुशंसित करते हैं। इसमें चमत्कारों और अंधविश्वासों के लिए कोई स्थान नहीं है। विवेकानन्द जी कहते थे कि लोग उनके पास साधु बनने के लिए आते थे तो वह उनसे पूछते थे कि तुम्हारे पास त्यागने के लिए अभी है क्या न तो बलिष्ठ शरीर है, न धन है, न अहं है, फिर त्यागोगे क्या वह कहते थे कि पहले कुछ अर्जित तो करो। पहले तमोगुण के पशुवत जीवन से निकलकर मनुष्य बनो तब तो साधु बनोगे। प्रसिद्ध संत प्रेमानंद जी महाराज के पास एक श्रद्धालु पीठ दर्द का इलाज पूछने गया तो उन्होंने कहा कि पीठ दर्द है तो डॉक्टर के पास जाओ, इसमें बाबा क्या करेगा यही सत्यता है। पहले पुरुषार्थ से बल, धन, शक्ति की प्राप्ति, संग्रह और फिर श्रद्धा, जिज्ञासा और विवेक बुद्धि पर आधारति साधना से उनकी निरर्थकता की अनुभूति कर उनका लोक कल्याण के लिए त्याग। परंतु ज्ञान और तप से हीन, कुछ वाचाल कथावाचक अपना उल्लू सीधा करने के लिए श्रद्धालुओं को धर्म के प्रमाणित मार्ग से विचलित कर सीधे मोह माया के त्याग, चमत्कारों से सफलता की बात करके अकर्मण्य बना रहे हैं और अंधविश्वासों में उलझाए पड़े हैं। दु:ख की बात यह है कि इनके कार्यक्रमों में लाखों लोग जा रहे हैं, कुछ टीवी चैनल धर्म के नाम पर चौबीसों घंटे इनकी ऊलजजूल बकवास को हिन्दुओं के मानस में भर रहे हैं। सनातनधर्म के मूल स्वरूप को बचाए रखने के लिए इस चुनौती का सामना करना आज के समय की आवश्यकता है।