प्रख्यात कानूनविद, पूर्व महाधिवक्ता और समाजसेवी आनंद मोहन माथुर का 97 वर्ष की आयु में निधन हो गया है। वे लंबे समय से बीमार चल रहे थे। उनके निधन से इंदौर ने एक समर्पित समाजसेवी और दूरदर्शी व्यक्तित्व को खो दिया है। आनंद मोहन माथुर ने इंदौर को कई अमूल्य सौगातें दी हैं, जिनमें झूला पुल, आनंद मोहन माथुर सभागृह और कुंती माथुर सभागृह जैसी महत्वपूर्ण संरचनाएं शामिल हैं। उनके योगदानों को शहर हमेशा याद रखेगा।
आर्थिक संकटों से जूझते हुए आनंद मोहन माथुर ने युवावस्था में ही शहर को सौगातें देने का संकल्प ले लिया था। करीब डेढ़ दशक पहले उन्होंने इंदौरवासियों को पहले झूला पुल की सौगात दी। इसके बाद उन्होंने स्कीम 54 स्थित आनंद मोहन माथुर सभागृह, एमवायएच में आनंद मोहन माथुर सेंटर फॉर एडवांस सर्जरी, एड्स पीड़ितों के लिए मानवीय ट्रस्ट, आनंद मोहन माथुर शासकीय माध्यमिक शाला भवन, जयकुंवर बाई माथुर ओपीडी, लक्ष्मीनारायण माथुर आईसीयू, रामबाग मुक्तिधाम में पत्नी की स्मृति में कुंती माथुर सभागृह और आनंद मोहन माथुर उद्यान जैसी अनेक सौगातें शहर को समर्पित कीं। उन्होंने ये सभी परियोजनाएं अपने निजी खर्च से तैयार करवाईं और उनकी देखरेख स्वयं की, जिससे उनकी समाजसेवा और शहर के प्रति समर्पण का उदाहरण स्थापित हुआ।
माथुर साहब ने 1943 में हाई स्कूल पास किया, तो उनके पिता ने इच्छा जताई कि बेटा डॉक्टर बने और समाजसेवा करे। मेडिकल कॉलेज में एडमिशन भी करवा दिया गया, लेकिन आर्थिक तंगी के चलते केपिटेशन शुल्क के रूप में एक हजार रुपये जमा नहीं किए जा सके, जिससे आनंद मोहन माथुर मेडिकल की पढ़ाई नहीं कर सके। बाद में कुछ समय तक उन्होंने इंदौर की मालवा मिल में मजदूरी की। अप्रैल 1948 में बी.एस.सी. परीक्षा मेरिट में उत्तीर्ण करने के बाद जब वे लखनऊ से इंदौर लौटे और घर की खराब आर्थिक स्थिति देखी, तो ग्रेजुएट होकर कोई भी काम करने का संकल्प लेकर निकल पड़े। अचानक ध्यान आया कि कपड़ा मिल में कहीं तो मजदूर बन सकता हूं—और बन गए। इसी श्रमनिष्ठता का उन्होंने परिचय दिया। लगातार अध्ययन, मनन और चिंतन करते हुए उन्होंने स्वयं को भारत के एक श्रेष्ठ महाधिवक्ता के रूप में स्थापित किया।
उन्होंने अपने पेशे को पूरी शुचिता और निष्ठा के साथ निभाया और विधि जगत की ऊँचाइयों तक पहुँचे। अपने गहरे कानून ज्ञान और अनुभव का उपयोग उन्होंने सदैव पीड़ितों और शोषितों के हित में किया। वे एक संवेदनशील लेखक भी थे—उन्होंने नाटक लिखे और रंगमंच पर सक्रिय योगदान दिया। संगीत की साधना में भी उनकी गहरी रुचि रही, और वे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कानूनी विशेषज्ञ के रूप में भारत का नेतृत्व कर चुके थे। हिंदी और अंग्रेज़ी के अलावा श्री माथुर मराठी, गुजराती, बंगाली, पंजाबी और उर्दू भाषा में भी दक्ष थे। जब वे मराठी बोलते, तो यह पहचानना मुश्किल हो जाता कि यह उनकी मातृभाषा नहीं है। यही प्रवाह और आत्मीयता उनकी गुजराती और बंगाली भाषा में भी झलकती थी। उनका निधन न केवल मध्यप्रदेश, बल्कि विशेष रूप से इंदौर के लिए एक अपूरणीय क्षति है।