गांव देहात के इकलौते प्रतिनिधि कवि जाट मेहर सिंह की हकमारी और ग्रामीण तानेबाने को ध्वस्त करने की साजिश

यह कहानी शुरू हुई बीर सुनारवाला और कंझावला गांवों से ! जब शामलात ज़मीन माने गांव साझी धरती को सिर्फ़ चंपाईयों को सौंप देने की माँग उठी ! सत्तर के दशक की बात है यह ! अब शाम्लात ज़मीन क्या होती है जरा इसको समझिए ! जब बुजुर्ग जंगल की ज़मीन तोड़कर उसको खेती लायक़ बनाकर गाँव बसाते थे तब कुछ ज़मीन बणी , कुछ जोहड़ , कुछ चुपाड़ और कुछ गाम साझे के लिए शामलात के रूप में रिज़र्व रखते थे !

सो यह धरती गाँव की साझी धरती थी ! अब चूँकि कोई भी राष्ट्र-राज्य एमिनेंट डोमेन के सिद्धांत को मानकर अस्तित्व में आता है , माने किसी राष्ट्र राज्य पर पावर्स एक्सरसाइज करने वाली गवर्निंग बॉडी उस राष्ट्र राज्य के जल जंगल ज़मीन की असल मालिक है , सो 1947 में हिन्दोस्तान के एक राष्ट्र राज्य के रूप में उभर कर आने के बाद सरकार ने गाँव की ज़मीन के मालिक की हैसियत से यह ज़मीन सिर्फ़ एक जाति को सौंपने की कारगुज़ारी की ! यह हिन्दोस्तान के स्वायत्त ग्रामीण समाज के संसाधनों की ताक़त के बूते खुली लूट थी !

अब शामलात ज़मीन तो ग्रामीण समाज ने एक अलिखित समझौते के तहत पूरे गांव के साझे उपयोग के लिए रिज़र्व की थी , सो गांवों ने इसका विरोध किया ! लिहाज़ा चम्पाइयों ने सबसे पहले ग्रामीण तानेबाने को मटियामेट करने के इरादे से सामाजिक उत्पादन में सीधी भागीदारी रखने वाले किसान और कारीगर कबीलों को दोफाड़ करने की मुहिम छेड़ी और हरियाणा के जाट कबीले के ख़िलाफ़ ज़हर उगलना शुरू किया ! जिसमें जाट कबीले के पास ज़मीन होने और चंपाइयों के भूमिहीन होने को गैर बराबरी ठहराया गया ! जबकि 1870 के पहले लैंड सेटलमेंट और डॉक्यूमेंटेशन , जिसमें हरेक वह परिवार जोकि ख़ुद की ज़मीन या दूसरे की ज़मीन पर खेती कर रहा था , को एग्रीकल्चरिस्ट के रूप में चिह्नित किया गया ,बाक़ी सबको नॉन-एग्रीकल्चरिस्ट ! चंपाई उस वक़्त भी ख़ुद को एग्रीकल्चरिस्ट साबित करने में नाकाम रहे क्योंकि खेती इनका इंटरेस्ट कभी थी ही नहीं ! वो तो जब कुनबों के बाद एक व्यक्ति के नाम ज़मीन चढ़नी शुरू हुई और सरकार या कारख़ाने द्वारा इसकी ख़रीद संभव हुई तो चम्पाइयों को ज़मीन भाने लगी , खेती या जीविका के लिए नहीं ,बेचने के लिए ! लिहाजा इन्होंने ख़ुद को हरियाणा के बाक़ी किसान और कामगार कबीलों के सामने जाट कबीले का विक्टिम घोषित करना शुरू कर दिया , ताकि सामाजिक और राजनीतिक रूप से जाटों का पृथक्करण करके उन्हें हतोत्साहित किया जा सके और ग्रामीण तानेबाने को ध्वस्त करके गांव की किसान और कारीगर जमातों के साझे संसाधनों को एकतरफ़ा हड़पा जा सके ! इन्होंने ग्रामीण सभ्यता की हरेक रिवाज रिवायत को रूढ़ि कहना शुरू किया ! जो भी इंसान किसी ना किसी रूप में इस ग्रामीण सभ्यता का प्रतिनिधित्व करता था , उसको डीग्रेड करना शुरू किया ! इसी कड़ी में शहीद कवि फ़ौजी मेहर सिंह की अपकीर्ति का बीड़ा उठाया महाशय दयाचंद मायना ने ! फौजी मेहर सिंह खड़ी बोली के ग्रामीण विमर्श के इकलौते प्रतिनिधि कवि थे !

खड़ी बोली क्षेत्र के सामाजिक व्यवहार को उन्होंने अपने किस्से कहानियों में राग रागनियों के माध्यम से खूब दर्शाया ! 1992 में निंदाना गांव के एक प्रोग्राम में दयाचंद वासी मायना ने फौजी मेहर सिंह द्वारा अपनी ब्याहता दादी प्रेमकौर जियों के लिए लिखी एक रागनी “करके घाल तड़पती छोड़ी” को अपनी बताकर गा दिया , ताकि फौजी मेहर सिंह को साहित्यिक चोर बनाकर , हरियाणा के देहात खासकर जाट कबीले को पृथक और हतोत्साहित किया जा सके ! इन्होंने उसको ब्रिगेडियर होशियार सिंह के किस्से की रागनी बताया ! ब्रिगेडियर होशियार सिंह के किस्से की आख़िरी रागनी में महाशय दयाचंद वासी मायना ने यह किस्सा लिखने की तारीख़ 1962 की बताई है , जबकि दयाचंद मायना की किताब में लेखक राजेंद्र बड़गूजर ने उर्दू में दयाचंद मायना की छाप में लिखी इसी रागनी को 1960 में लिखा बताया ! अब पाठक सुधीजन बताएँ कि जो क़िस्सा लिखा ही 1962 में गया है , तो उसकी रागनी 1960 में कैसे मिल सकती है ? सबूत के तौर पर मैं उस किताब से इस वाक़ये के अंश संलग्न कर रहा हूँ !

इसके बाद भी ये लोग यहीं नहीं रुके , फिर विवाद हुआ फौजी मेहर सिंह रचित सुभाष चंद्र बोस के किस्से पर ! लेकिन जब बरौणा में इन्हीं की जाति के करण सिंह सौदा ने इन्हें बुलाया तो महाशय ख़ुद मुकर गए कि यह क़िस्सा तो फ़ौजी मेहर सिंह का लिखा हुआ ही है , मेरी सिर्फ़ कुछ रागनियां हैं ! अब इनके जीते जी यह किस्सा फौजी मेहर सिंह की ही छाप से सब गायकों ने गाया और इनको कोई आपत्ति नहीं हुई लेकिन इनकी मौत के बाद चोरों की जमात ने शोर मचा दिया ! सबसे ज़्यादा शोर मचाया राजेन्द्र बड़गूजर ने , जिसने अपनी किताब में पूरे के पूरे किस्से पर ही दयाचंद की छाप लगा दी !

तर्क के नाम पर मुँह से कोरे झाग फेंके गए ! इसी किस्से की एक रागनी थापा और चतेरा छापा की आख़िरी कली में हरियाणा शब्द लिखा गया है , जिसपर राजेंद्र बड़गूजर ने कुतर्क किया है कि हरियाणा तो 1966 में बना जबकि फौजी मेहर सिंह तो 1945 में शहीद हो गए थे , तो यह रागनी उनकी कैसे हो सकती है ! लेकिन अगर हम कवि मांगेराम पाणची की रागनी जहाज के महँ बैठ गौरी की आख़िरी कली सुनेंगे तो लिखा पाएंगे , रोहतक है जिला हमारा हरियाणा महँ नाम जबकि यह रागनी 1947 से पहले लिखी गई है , जिसकी पुष्टि पाठक मांगेराम पाणची जी के परिवार से कर सकते हैं ! और फिर ख़ुद लेखक महोदय ने अपनी किताब में बलवान सिंह राठी का इंटरव्यू छापा है जिसमें कहा गया है कि दयाचंद ने यह किस्सा 1950 में लिखा था ! मतलब अगर इस किस्से को चुराकर दयाचंद की छाप लगानी है तो हरियाणा शब्द 1950 में भी अस्तित्व में था लेकिन अगर इस किस्से के मूल लेखक फौजी मेहर सिंह की छाप का सवाल आता है तो हरियाणा शब्द 1966 से पहले था ही नहीं !

अगर आप पंजाब लेजिस्लेटिव कौंसिल की 1937 की डिबेट्स पढ़ेंगे तो पाएंगे कि उस वक्त भी हरियाणा शब्द आम बोलचाल में था ! फिर फौजी मेहर सिंह तो आज़ाद हिन्द फौज में थे , तो सुभाष चंद्र बोस का क़िस्सा भी उन्हीं का है , लेकिन पिछले कुछ सालों में चंपू लेखक ने एक नई बात को जन्म दिया कि दयाचंद ने भी फौज में छह साल नौकरी की थी ! अब यहाँ भी लेखक फँस रहा है , गूगल विकिपीडिया पर तो लोक समर्थन हासिल करने के लिए इन्होंने दयाचंद को आज़ाद हिन्द फौज का सैनिक बता रखा है वहीं अपनी किताब में उनको 8 मराठा एंटी टैंक रेजिमेंट में भर्ती बता रखा है ! जबकि आजतक दयाचंद का कोई भी साथी सैनिक सामने नहीं आया है , ना ही इनके कोई मिलिट्री डॉक्युमेंट्स ही कभी सामने आए !

इसका सीधा मतलब की दयाचंद के फौजी होने की कहानी एक कहानी ही है ! अब जो आदमी फौज में था ही नहीं उसको आर्टिलरी ऐम्युनिशन के कैलिबर से लेकर फौज की युद्ध के दौरान मोडस ऑपरेंडी के बारे में इतनी गूढ़ता से कैसे पता ? लेकिन वहीं फौजी मेहर सिंह जी के अनेक सैनिक साथियों के एफिडेविट हमारे पास मौजूद हैं जिसमें उनके बयान मौजूद हैं कि किस तरह फौजी साहब ने बर्मा की जंग जीतने के बाद सुभाष चंद्र बॉस के सामने बर्मा के कुशिंग हाई स्कूल में रखी गई पार्टी में उन्हीं का क़िस्सा सुनाया था !

अब अगर राजेंद्र चम्पाई की बात को ऊपर रखकर मान भी लिया जाए कि दयाचंद की भर्ती ब्रिटिश आर्मी की 8 मराठा एंटी टैंक रेजिमेंट में थी , तो क्या यह संभव है कि ब्रिटिशर्स की तरफ़ से आईएनए के ख़िलाफ़ लड़ने वाला एक सिपाही आईएनए के सुप्रीमो की शान में गूढ़ कविताई कर दे जबकि एक ऐसा कवि जो ख़ुद आईएनए का सैनिक और उसके सैनिक साथियों के कहे मुताबिक़ सुभाष चंद्र बोस का चहेता सिपाही उनके ऊपर कविताई ना करे ? क्या पूरी दुनिया के इतिहास में कभी ऐसा हुआ है कि कदम कदम पर अपनी आपबीती लिखने वाला कोई कवि अपनी ज़िंदगी के सबसे महत्वपूर्ण हिस्से को काग़ज़ पर उतारे ही ना ? खैर अब आते हैं गायकों के ऊपर जिन्होंने सुभाष चंद्र बोस के किस्से को उसके असली रचयिता फ़ौजी मेहर सिंह की छाप से गाया और उनपर आरोप लगा पैसे के लोभ में रागनी चुराकर गाने का ! ये गायक महाशय राजकिशन अगवानपुर और पालेराम दहिया थे ! जहाँ तक राजकिशन का सवाल है तो वे ऐसे गायक थे कि उस दौर में उनके प्रोग्राम टिकट लेकर देखने पड़ते थे , क्या ग़ज़ब का तिलिस्म था आवाज़ में , जब तक जिए किसी भी प्रतिस्पर्धा में दूसरा नहीं आए !

जिस इंसान की सिर्फ़ आवाज़ सुनने के लिए लोग टिकट ख़रीदते थे क्या उसको पैसे के लिए चोरी करने की ज़रूरत थी ? अगर मोहम्मद रफ़ी किसी भाव विहीन तराने को भी गा दें , तो वह तराना अमर हो जाए , तो फिर रफ़ी साहब को पैसे के लिए किसी का तराना चुराने की क्या ज़रूरत ? पैसे के लिए शॉर्टकट्स तो वह गायक मारेगा जिसके पास गला , सुर और आवाज़ ना हों माने उसकी आवाज़ के बूते उसकी आमदनी ना हो रही हो ! अब पालेराम दहिया जी ऐसे गायक थे जिन्होंने ताउम्र औरत के साथ नहीं गाया , जबकि उस दौर में ड्यूट की माँग बहुत ज़्यादा थी और जिन गायकों ने ड्यूट किया , उनको पब्लिक ने सोने में तोला ! अगर पालेराम दहिया जी में पैसे की भूख होती तो क्या वह ड्यूट करने से परहेज करते ?

ये सारे तर्क एक बात की और ही इशारा करते हैं कि फौजी मेहर सिंह की अमर रचनाएँ चोरी करके चम्पाई शरणार्थी खड़ी बोली के ग्रामीण किसान और कामगार कबीलों को पृथक और हतोत्साहित करके ग्रामीण सभ्यता के ख़िलाफ़ सीधा मोर्चा खोल रहे हैं ताकि जब कारखानों द्वारा गाँवों के संसाधन लूटे जाएँ तो गाँव असहाय खड़े हों और इन्हें चाम/चंपा एम्पायर(वियतनाम) के दलत शरणार्थियों (दलत, वियतनाम के लिए गूगल करें ) का शोषक मानकर कहीं से सहानुभूति भी ना मिलने दी जाए !

Ashish Rana
Ashish Rana

आशीष राना आदि किसान रिसर्चर