आदिवासी अंचल में गूंज रहा हैं प्रेम का संगीत, फागुन आते ही अलग ही आनंद का अहसास

हमारे आसपास बिखरे सकून भरी घाटियों में आजकल पारंपरिक होली पर्व के पूर्व मनाए जाने भगोरिया की धूम हैं। ये महापर्व आदिवासी बंधुओं के लिए दीपावली पर्व हैं। इस बार इस महापर्व को सुखद आनंद लेने हेतु कभी अपराध के लिए कुख्यात क्षेत्र सोंडवा अलीराजपुर जाने का मौका मिला। इस धरती पर पैर रखते ही वातावरण में अलग ही खुशबू महक रही थी।

चारो तरफ लोकसंगीत की स्वर लहरियां आसमान को छू रही थीं। आदिवासी बंधुओं के अलग अलग वाद्य यंत्र,ढोलक,थाली , बाजे ,पुंगी और ताशे ढोल छन छन कर रहे थे। आस पास के गांवों के ग्रामीण अपने अपने गांव के ड्रेस कोड के साथ झुंड झुंड के नाचते गाते हुए चले आ रहे थे। लोक नृत्य करते हुए आदिवासी बंधुओं की वेश भूषा देखते ही बनती थीं। सर पर मोर पंख,और विभिन्न जानवरों के मुखौटे,और ताड़ी महुआ पेय पदार्थ का फूल शबाब भरा जिगर और उस पर चारों तरफ फागुन का रंग वातावरण को गुंजायमान कर रहा था।

आदिवासी नारियों का प्राकृतिक सौंदर्य देखते ही बनता था। हर नारी देवी रूप में पूरे भगोरिया चहक रही थीं। दो से तीन किलो के शुद्ध चांदी के आभूषण धारण कर नृत्य हर इंसान को लुभा रहा था। सोने चांदी का कंदोरा , बाजूबंद,सर पर बोर, चांदी के पाटले,पैरों में मोटे मोटे कड़े और उस पर शानदार अकल्पनीय यादगार लोक गीतों पर नृत्य ही नृत्य देखते ही बनता हैं। आदिवासी अंचल की हर नारी द्वारा किया ग्रामीण परिवेश में किया श्रृंगार अप्सरा से कम नहीं था।

ऐसा माना जाता हैं ये आदिवासी विवाह उत्सव पर्व हैं। भगोरिया हाट बाजार में नारियां सज धज कर आती हैं और अपना वर चुनती हैं और पसंद आने पर उस प्रेमी के साथ भाग भी जाती हैं। फिर होता हैं रिति रिवाज और संस्कारों के रूप में पाणिग्रहण हाट बाजार अपराध के लिए जाने वाले इस क्षेत्र की वादियों में अलग ही रंग बरस रहा था। सबसे महत्वपूर्ण ये हैं की अलीराजपुर सोंडवा कट्ठीवाड़ा जोबट के ये सभी क्षेत्र 90 प्रतिशत आदिवासी बहुल हैं और यहां पुलिस प्रशासन ने हर हाट बाजारों में होने रोज के भगोरिया पर्व के लिए पुख्ता इंतजाम किए हैं।

ये शनिवार को अभी राणापुर मेघनगर और अन्य जगह अपने रंग बरसा रहा हैं और रविवार को झाबुआ में सबसे बड़े उत्सव के रूप में समापन होगा। ये भगोरिया पर शहर की दुर्गंध प्रवेश करती जा रही हैं। आदिवासी बंधु और धोती गमछा और सिर पर बंधे फेटे को भूलकर जींस पेंट टी शर्ट की और आकर्षित हो चले हैं। वही नारियां भी नेचरल प्रसाधन को भूलकर दिखावटी ब्यूटी पार्लर की राह पर चल पड़ी हैं। ये आदिवासी संस्कृति के घातक हैं। इस परंपरा को इससे बचाना होगा। आनंद और उत्सव हमारी धरोहर है। जिसका दर्शन हमने आंखों में संजो कर इंदौर आए हैं।

रामकृष्ण नागर ( नाना ) की कलम