उज्जैन में स्थित श्री द्वारकाधीश गोपाल मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण की पूजा अनोखे ढंग से होती है। जहां कृष्ण जन्म के बाद पांच दिनों तक मंदिर में शयन आरती नहीं होती है। यह परंपरा पिछले 110 वर्षों से चली आ रही है और आज भी भक्त पूरी आस्था भाव से इसे निभाते हैं।
कान्हा के सोने का समय नहीं होता है तय
मंदिर के पुजारी कहते है कि इस परंपरा के पीछे धार्मिक मान्यता जुड़ी है। जन्म के बाद भगवान श्रीकृष्ण शैशव अवस्था में रहते हैं और शिशु के सोने-जागने का कोई निश्चित समय नहीं होता। ऐसे में नियत समय पर शयन आरती संभव नहीं होती। इसी कारण पांच दिनों तक आरती बंद रहती है और भक्त केवल कान्हा से लाड़-प्यार करते हैं।
माखन मिश्री का लगता है भोग
इस दौरान भगवान को दूध, माखन और अन्य भोग अर्पित किए जाते हैं। मान्यता है कि पांचवें दिन यानी बछबारस पर बालकृष्ण बड़े हो जाते हैं। इसी दिन उनका विशेष अभिषेक होता है और उन्हें सिंधिया राजवंश की चांदी की पादुका पहनाई जाती है। इसके बाद भगवान मंदिर के मुख्य द्वार पर बंधी माखन-मटकी फोड़ते हैं और दोपहर में शयन आरती होती है। यही साल का एकमात्र अवसर है जब दिन में शयन आरती की जाती है।
मंदिर का ऐसा है इतिहास
श्री द्वारकाधीश गोपाल मंदिर का निर्माण संवत 1909 में सिंधिया राजवंश की महारानी बायजाबाई सिंधिया ने कराया था। यह भव्य और कलात्मक मंदिर आज भी अपनी परंपराओं और वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है। यहां भगवान द्वारकाधीश अपनी पटरानी रुक्मिणीजी के साथ विराजमान हैं। भगवान को चांदी के रथ में विराजित कर शयन कक्ष में ले जाया जाता है। इसके बाद भगवान की शयन आरती की जाती है। पांच दिनों तक जन्माष्टमी से बछबारस तक यह परंपरा स्थगित रहती है और भगवान गर्भगृह में ही विराजित रहते हैं।
नारायणा गांव है मित्रता का प्रतीक
उज्जैन के पास स्थित नारायणा गांव को भगवान श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता का पवित्र स्थल माना जाता है। कथा है कि सांदीपनि आश्रम में पढ़ाई के दौरान दोनों मित्र यहां लकड़ियां लेने आए थे और रातभर यहीं रुके थे। कहा जाता है कि इसी स्थान पर सुदामा ने छिपकर चने खाए थे। आज यह स्थान कृष्ण भक्तों के लिए तीर्थ बन गया है, जहां जन्माष्टमी पर विशेष आयोजन होता है।