cricketer : यह दूरी… बन गई कैसी मजबूरी!


प्रकाश पुरोहित
वरिष्ठ पत्रकार एवं व्यंग्यकार

मैं यदि  क्रिकेटर ( cricketer ) नहीं बन पाया तो इसकी वजह यह नहीं थी कि मेरे पिताजी देश के होम-मिनिस्टर थे। अंदर की बात तो यह है कि पिताजी तो हमारे घर के भी गृह-मंत्री नहीं थे, क्योंकि यह मंत्रालय हमारी मां को दहेज में मिला था। मेरे पिताजी हिमाचल जैसे किसी राज्य के मुख्यमंत्री भी होते तो भी मैं, क्रिकेटर नहीं बन पाता, क्योंकि संभावना विरासत में बनी रहती।

मैं चाह कर भी cricketer नहीं बन पाया

गलत मत सोचिए, मेरे व्यक्तिगत कारण रहे, जिनकी वजह से मैं चाह कर भी क्रिकेटर ( cricketer ) नहीं बन पाया। जबकि उन दिनों, आज की तरह क्रिकेटर बनने का क्रेज नहीं था। मेरे अनुभव का लाभ लेते हुए अगर मेरे कुछ विनम्र सुझाव पर नान-क्रिकेटर आइसीसी चेयरमैन’ ध्यान दें तो मेरे जैसे कई ऐसे हैं, जो खिलाड़ी बनने के लिए आज भी तैयार हैं। यदि क्रिकेट और मेरे बीच, एक मजबूरी और लाइव टीवी नहीं आता तो आज आप मुझे क्रिकेटर की तरह याद कर रहे होते। बल्लेबाज बनना चाहता था, लेकिन आंख की शर्म और लाइव टीवी कवरेज सबसे बड़ा अड़ंगा रहा। चलिए, अपन ने किसी पारी में सौ रन बना दिए तो ठीक, उछलते-कूदते मैदान से पैवेलियन तक चले आए, बल्कि उस समय तो यही लगता रहता है कि रहती दुनिया तक यहीं उछलते रहें। मुश्किल तो तब होती है, जब आपके पहली ही गेंद पर डंडे बिखर जाते हैं। तब के उस दृश्य की कल्पना कीजिए। बल्लेबाज और टीम के खाते में एक भी रन नहीं है और आप विकेट खो चुके हैं। बिलकुल बॉर्डर-गावसकर ट्रॉफी सीरीज की तरह। चूंकि क्रिकेट का नियम है कि आउट होने के बाद आप मैदान में नहीं रह सकते, जैसे चुनाव हारने के बाद मुख्यमंत्री, तो वहां से स्टेडियम तक का रास्ता दिन भर चले और अढ़ाई कोस’ हो जाता है। क्रिकेट में सबसे बुरा यही है कि आउट होने के बाद खिलाड़ी को पैदल चलते हुए, हजारों घूरती नजरों के सामने से गुजरते हुए, पैवेलियन तक जाना पड़ता है। रन बना लिए तो वाह-वाह’ नहीं तो पूरे रास्ते हाय-हाय!’ आप पहले ही हाय-हाय’ कर रहे हैं और आपकी हाय में हजारों हाय और शामिल हो जाती हैं तो कदम उठाना भी मुश्किल हो जाता है! एक तो रन नहीं बने और फिर इतनी लंबी यात्रा… बहुत नाइंसाफी है यह। अब ऐसे में पैवेलियन लौट रहा बल्लेबाज करे तो क्या करे! सबसे पहले वह बल्ले के उस होल को देखने की कोशिश करता है, जिसमें से होकर गेंद ने गिल्लियां उड़ाई थीं। उसे तमाम कोशिश के बावजूद वह छेद नजर नहीं आता। इस हरकत से दस फीसद रास्ता कट गया। आगे क्या, तो वह फिर हाथ के दस्ताने उतारता है। दोनों दस्ताने एक हाथ में पकड़ता है, फिर दूसरे हाथ से हेलमेट उतारता है, चेहरा दिखाने का तो कोई मौका नहीं है, मगर करे तो क्या। हेलमेट निकाल लिया तो हाथ सीधे सिर के बाल तक पहुंचता है, जुल्फ बिखराने की कोशिश करता है। शायर ने इसी वक्त के लिए लिखा होगा- ये जुल्फ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा!’ बीस फीसद रास्ता पार। ऐसे समय में मन तो करता है कि एक-एक कर सब उतार दे, जिसने इज्जत उतारी है, लेकिन बचा रास्ता पार करना है!
जब क्रिकेट में डीआरएस, थर्ड अंपायर और हॉक आइस जैसे आविष्कार हो चुके हैं तो इस बारे में जरूर कुछ सोचा जाना चाहिए था कि शर्मिंदा और नाकाम हो रहे बल्लेबाज को कम से कम समय में विकेट से पैवेलियन दाखिल करा दिया जाए। वह तो कहिए खिलाड़ी जिगरे वाले होते हैं, दूसरा कोई हो तो वहीं बीच मैदान में ही सीता जी’ हो जाए।
तब मेरे दिमाग में यह आइडिया घर करता है कि क्यों ना विकेट से पैवेलियन तक का अंडर-ग्राउंड रास्ता बनाया जाए कि खिलाड़ी आउट हो, वैसे ही खुल जा सिम सिम’ की तरह पिच खिसक जाए, पैवेलियन का रास्ता नजर आने लगे और खिलाड़ी यूं गायब हो जाए, जैसे कभी खेलने ही नहीं आया हो। चलिए, इसमें टेक्निकल दिक्कत आ सकती है कि गुफा के रास्ते का मेंटेनेंस कौन करेगा! लफड़े भी हो सकते हैं कि खिलाड़ी निकला तो था पैवेलियन के लिए, लेकिन पहुंचा ही नहीं। किसी लारेंस-गैंग ने अगुवा कर लिया।
इसलिए आसान तरीका यही रहेगा कि पुराने जमाने की पर्दे वाली बग्घी जैसी मोटर-कार फौरन रवाना कर दी जाए। जैसे कि आजकल ड्रिंक्स ट्राली आती है ना, ठीक वैसे ही कि खिलाड़ी थर्ड अंपायर की तरफ जाए, तभी हमारी यह खिलाड़ी ढोने वाली गाड़ी स्टार्ट हो जाए। यह गाड़ी हमारे शहर को स्वच्छ रखने वाली पीली-गाड़ी की तरह भी हो सकती है, कहने को ढक्कन है, लेकिन लगता कभी नहीं। खिलाड़ी का दम नहीं घुटेगा। उधर अंपायर आउट दे और इधर गाड़ी बीच मैदान में। लोग जब तक स्क्रीन पर आउट’ देखें, इधर बल्लेबाज पैवेलियन के अंदर।
जब टीवी नहीं था तो फिर भी इतनी दिक्कत नहीं थी कि कुछ हजार लोग ही जाते हुए बल्लेबाज को कोस रहे हैं, लेकिन जब से ये लाइव कवरेज शरू हुआ है, करोड़ों लोगों के सामने बल्लेबाज को शर्मिंदा किया जाता है। कम से कम इतनी हिम्मत तो दिखा ही सकते हैं कि जब बल्लेबाज आउट हो तो टीवी विज्ञापन तब तक चलाते रहें, जब तक कि वह पैवेलियन में पहुंच ना जाए और स्टेडियम में चीयर-लीडर्स को खड़ा कर दिया जाए। बाकी में तो ऐसा इंतजाम है, टेस्ट मैच की बात कर रहा हूं। यह भी कर सकते हैं कि स्टेडियम की स्क्रीन पर मन की बात’ के टुकड़े लगाते रहें, ताकि कुछ आंखें बंद कर लें भक्तिभाव से! सरकार मनोरंजन टैक्स तो माफ कर ही चुकी है!
यकीन मानिए, आसपास समुद्र हो तो आउट बल्लेबाज डूबने का सोच ले, अगर तैरना नहीं आता हो। एक बार ऐसा ही हुआ था कि खिलाड़ी नया था, आउट हो गया, समझ नहीं पाया कि नजरें कहां जमाए! तो जमीन देखता हुआ चल दिया। लोग हैरान कि रिटायर होने का यह कैसा तरीका। बंदे ने नजर उठा कर यह भी नहीं देखा कि पैवेलियन की तरफ नहीं, मेन-गेट की तरफ जा रहा है। और देखते ही देखते वह स्टेडियम से बाहर ऐसा गया कि फिर कभी नहीं लौटा। गनीमत रही कि तब तक ट्वेल्थ-मेन का रिवाज शुरू हो चुका था और मैच पूरा खेला गया।
चार कदम की यह दूरी, बल्लेबाज को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा’ जैसी लंबी लगती होगी, यह देखने वाले लोग क्या जानें। पांच मिनट का यह रास्ता तब सदियों लंबा हो जाता है, जब खिलाड़ी अपने साथ जीरो लिए लौटता है। यकीन ना हो तो रिटायर होने के बाद या अभी ही रोहित शर्मा से पूछ कर देखिए। कितनी कितनी बार, लगातार इस अजाब से इन दिनों गुजरना पड़ा है रोहित को, अगर ऐसे में रिटायर हो जाए तो क्या दोष। क्रिकेट में जरूरी सुधार ना होने की वजह से मेरे जैसे ना जाने कितने प्रतिभाशाली खिलाड़ी आज भारत की हार देखने के लिए मजबूर हैं!
(लेखक के ये निजी विचार हैं)