भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को 7 सितंबर (शनिवार) के दिन सनातन धर्मावलंबी अगस्त्य मुनि को खीरा और सुपाड़ी से तर्पण करेंगे। यह तर्पण परंपरा पितरों को स्मरण करने की दिशा में पहला कदम माना जाता है। इसके अगले ही दिन, 8 सितंबर रविवार से पितृपक्ष की शुरुआत हो जाएगी, जिसे हिंदू संस्कृति में पूर्वजों की आत्मा की शांति और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण समय कहा गया है।
पितृपक्ष का महत्व और अवधि
पितृपक्ष की अवधि इस बार विशेष मानी जा रही है क्योंकि इसमें नवमी तिथि का क्षय हो रहा है। इस कारण यह पक्ष सामान्य 15 दिन के बजाय 14 दिनों का रहेगा। धार्मिक मान्यता के अनुसार इस अवधि में श्राद्ध, पिंडदान और तर्पण करने से पितरों की आत्मा तृप्त होती है और वे अपने वंशजों को आशीर्वाद देते हैं। 8 सितंबर से शुरू होकर यह क्रम 21 सितंबर (रविवार) अमावस्या तिथि तक चलेगा, जब सर्वपितृ अमावस्या पर पितरों का विसर्जन किया जाएगा।
किन-किनका श्राद्ध किया जाता है
ज्योतिषाचार्य पंडित राकेश झा बताते हैं कि पितृपक्ष में केवल पिता या दादा ही नहीं बल्कि पितामह, प्रपितामह, मातामह, प्रमातामह और वृद्ध प्रमातामह तक के साथ-साथ नानी और नाना पक्ष के दिवंगत पूर्वजों का भी श्राद्ध किया जाता है। इसके अतिरिक्त परिवार और कुल के अन्य दिवंगत सदस्य भी इस क्रम में सम्मिलित होते हैं। विधिपूर्वक नाम और गोत्र लेकर जब तर्पण किया जाता है, तो पितरों की आत्मा संतुष्ट होकर वंशजों को सुख-समृद्धि का वरदान देती है।
विशेष तिथियाँ और महत्व
इस पितृपक्ष में कई महत्वपूर्ण तिथियाँ आती हैं। 11 सितंबर (गुरुवार) को चतुर्थी श्राद्ध, 15 सितंबर (सोमवार) को मातृ नवमी, 17 सितंबर (बुधवार) को इंदिरा एकादशी, और 20 सितंबर (शनिवार) को चतुर्दशी श्राद्ध होगा। चतुर्दशी का दिन खासतौर पर उन पितरों के लिए होता है जिनकी मृत्यु शस्त्र आदि दुर्घटनाओं से हुई हो। इसके बाद 21 सितंबर (रविवार) को अमावस्या के दिन सर्वपितृ श्राद्ध और महालया पर्व मनाया जाएगा, जिसमें पूरे पितरों को सामूहिक रूप से तर्पण कर विदाई दी जाती है।
अमावस्या का विशेष महत्व
इस बार अमावस्या का समय 21 सितंबर सुबह सूर्योदय से लेकर रात 12:28 बजे तक रहेगा। इस दिन स्नान, दान, तर्पण और ब्राह्मण भोजन कराने की परंपरा है। जिन व्यक्तियों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती, उनका श्राद्ध भी इसी अमावस्या को किया जाता है। यही नहीं, अकाल मृत्यु, आत्महत्या या हत्या जैसी परिस्थितियों में दिवंगत आत्माओं का श्राद्ध भी अमावस्या को किया जाता है।
तिथिवार श्राद्ध की परंपरा
धार्मिक ग्रंथों में स्पष्ट बताया गया है कि यदि पत्नी का निधन हो गया हो और पति जीवित हो, तो ऐसी स्त्रियों का श्राद्ध नवमी तिथि को किया जाता है। साधु और सन्यासियों का श्राद्ध एकादशी तिथि पर होता है। बाकी सभी का श्राद्ध उनकी संबंधित तिथियों के अनुसार संपन्न किया जाता है। इस व्यवस्था से हर प्रकार की आत्मा को सम्मानपूर्वक स्मरण किया जाता है।
तर्पण और पितृ ऋण से मुक्ति
श्राद्ध और तर्पण केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं बल्कि पितृ ऋण से मुक्ति का मार्ग माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार प्रत्येक मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण बताए गए हैं—पितृ ऋण, देव ऋण और गुरु ऋण। पितृपक्ष में जल और तिल से किया गया तर्पण पूर्वजों तक पहुंचकर उन्हें तृप्त करता है। पितृ प्रसन्न होकर वंशजों को स्वास्थ्य, समृद्धि और शांति का आशीर्वाद देते हैं। यही कारण है कि इसे हमारी संस्कृति की अनमोल धरोहर माना जाता है।