दुनिया में पहली बार जब हुआ “ब्लैक आउट” तो बस रास्ता देखने जैसी ही बची थी रोशनी

देशभर के लगभग 244 शहरों में 7 मई को ब्लैक आउट मार्कड्रिल की गई। जिसमें पूरे देशवासियों ने अपना जस्बा दिखाया। ब्लैक आउट का समय अलग-अलग शहरों में अलग-अलग था। जैसे ही ब्लैक आउट हुआ सब कुछ थम गया। आइए हम आपको बताते है सबसे पहले ब्लैक से जुड़ी कहानी,
1 सितंबर 1939 की रात, जब दुनिया युद्ध की कगार पर खड़ी थी, तब ब्रिटेन की सड़कों पर अंधेरे ने अपने कदम जमा लिए थे। युद्ध की आधिकारिक घोषणा से पहले ही सरकार ने “ब्लैकआउट” नियम लागू कर दिए थे। यह  एक ऐसा कदम था जिसने हर नागरिक को रात के सन्नाटे में छिपने पर मजबूर कर दिया। देश की सुरक्षा अब हर खिड़की के पर्दे और हर दरवाज़े के पीछे छुपी रोशनी पर निर्भर थी।

गहरे रंग के पर्दे में छिप जाते थे घर के दरवाजे
इन नियमों के तहत, यह अनिवार्य कर दिया गया कि रात होते ही हर घर की खिड़कियों और दरवाज़ों को मोटे काले पर्दों, कार्डबोर्ड या गहरे रंग के पेंट से इस तरह ढंका जाए कि भीतर की कोई भी किरण बाहर न झांक सके। बत्ती का एक कतरा भी दुश्मन विमानों को रास्ता दिखा सकता था। इस कारण ब्रिटेन इस खतरे को किसी कीमत पर मोल नहीं लेना चाहता था।

गाड़ियों की हेडलाइट्स को भी ढक दिया गया
सिर्फ घर ही नहीं, बल्कि सड़कों की रौशनी भी अब दुश्मन की नजरों से छुपाई जा रही थी। स्ट्रीट लाइट्स या तो बुझा दी गईं या विशेष ढालों से ढंक दी गईं, ताकि उनकी रौशनी केवल ज़मीन तक सीमित रहे। ट्रैफ़िक लाइट्स और गाड़ियों की हेडलाइट्स को भी ढक दिया गया, सिर्फ इतनी रौशनी बची कि रास्ता दिख सके, पर दुश्मन की निगाहों से सब कुछ ओझल रहे।

हवाई हमलों से बचाता है ब्लैकआउट
ब्रिटेन के वायु मंत्रालय को अंदेशा था कि हवाई हमलों में भारी तबाही मच सकती है, और इससे हज़ारों नागरिकों की जान खतरे में पड़ सकती थी। जुलाई 1939 में जारी “पब्लिक इन्फॉर्मेशन लीफ़लेट नंबर 2” ने चेतावनी दी थी कि ब्लैकआउट नियमों का कड़ाई से पालन ही हमें बचा सकता है। हर नागरिक एक सैनिक बन चुका था, जो अपनी खिड़की पर पर्दा डालकर दुश्मन की आंखों में धूल झोंक रहा था। यह युद्ध रोशनी के खिलाफ नहीं, बल्कि उस रौशनी से होने वाले विनाश के खिलाफ था।