प्रकाश पुरोहित
वरिष्ठ पत्रकार एवं व्यंग्यकार
आज भी आम भारतीय घरों में वाशिंग-मशीन ( washing machine ) नहीं है। आशय, यह आरोप लगाना नहीं है कि सभी मशीनें दिल्ली भेज दी गई हैं या सरकार ने इसकी खरीद पर रोक लगा दी है। आज भी जो चाहे वाशिंग मशीन खरीदने के लिए आजाद है। हमारे यहां विदेशों वाला चलन तो अभी आया नहीं है कि गंदे कपड़े ले जाओ और पराई-किराए की मशीन में डाल कर धो लाओ। (आप गलत जगह जा रहे हैं!) यहां तो अपनी मशीन में सिर्फ अपने ही कपड़े धुलते हैं। पहले लडक़ी को दायचे में पलंग देने की रिवायत होती थी, मगर बाद में वाशिंग मशीन का दबाव पडऩे लगा। पलंग का तो फिर भी समझ आता है कि एक मनक बढ़ गया तो, एक पलंग और, लेकिन ये वाशिंग मशीन, क्या ससुराल के लोग पहले नहाते-धोते नहीं थे या गंदे कपड़े धोए ही नहीं जाते थे? लोग तब दुल्हन देखने के बहाने वाशिंग मशीन देखने जासूस भेजा करते थे कि ऑटोमेटिक है या यूं ही! तेरी कमीज, मेरी कमीज’ का जमाना गुजर चुका था और तेरी वाशिंग मशीन से हमारी वाली…, की तुलना होने लगी थी।
घर में washing machine नहीं है क्योंकि मेरा छोरा शादी लायक नहीं
मेरे घर में वाशिंग मशीन ( washing machine ) नहीं है, क्योंकि मेरा छोरा अभी मशीन लायक यानी शादी के काबिल नहीं हुआ है। हम भी दुल्हन से ज्यादा वाशिंग मशीन का इंतजार कर रहे हैं कि अहा… हमारे अंगने में भी’ एक अदद धुलाई कर रही होगी। वैसे पत्नी ने एक-दो बार उलाहना देना चाहा तो मैंने यह कह कर उसे चुप कर दिया कि तुम ही थोड़े साल रुक जातीं तो वाशिंग मशीन के साथ ही घर आतीं। किसी लांड्री वाले ने बताया था वाशिंग मशीन की खोज तो करीब दो सौ साल पहले हो गई थी, लेकिन आप तो जानते ही हैं कि हम नकल करने में भी कितनी अकल लगाते हैं, जब तक पूरी तरह खात्री ना कर लें, हम नकल नहीं बनाते। असल की तो झंझट वैसे ही हम नहीं पालते हैं। .अधिकृत रूप से भारत में यह मशीन सौ साल पहले आ गई थी, मगर आम घरों में आने में पूरी एक सदी लग गई।
आवाज से पता चलता है मशीन है
इसकी वजह है, हमारे यहां जो भी चीज खरीदी जाती है, उसे पूरे समय चलना चाहिए। अब जैसे रेडियो या टीवी या मोबाइल फोन और यहां तक कि बहू ही ले लो, सांस रुक जाती हैं मगर ये नहीं। कीमत वसूल, यह हमारा फलसफा है। वाशिंग मशीन इतनी जगह घेरती है और इतनी बड़ी होती है कि जरूरत पडऩे पर दो-चार बच्चे तो उसमें सुलाए ही जा सकते हैं। एक परिवार में तो ट्रेंडी (यह बिल्ली का नाम है) ने बच्चे दिए तो कपड़े धोने के लिए बाई लगाना पड़ी थी कि ट्रेंडी के बच्चे उनकी वाशिंग मशीन में पल रहे थे। जब सम्पन्न परिवारों की मिनकी-सोच ऐसी है तो आम परिवार अगर वाशिंग मशीन को फालतू पड़ा देखे तो उसका खून जलना स्वाभाविक ही है। आधे घंटे में घर भर धुल गया, अब क्या करें निगोड़ी इस मशीन का, कपड़े से ढांक कर भी नहीं रख सकते, कि आते-जाते की नजर में तो आना चाहिए ना कि हम भी वाशिंग मशीन रखते हैं। कुछ तो बगैर कपड़े के भी चलाते रहते हैं कि बघर में।
गांव में रावले के यहां जाना हुआ था। तब यूं ही अपनी शहरी-प्रतिभा जताने और कपड़े धो रही खूबसूरत नौकरानी पर इम्प्रेशन जमाने के लिए कह दिया कि अब तो वाशिंग मशीन ले ही लो। रावले नाक पर मक्खी ना बैठने दें, मुझे इशारे से खड़े होने के लिए कहा और वहां ले गए, जहां उनकी ढेर गाय-भैंस बंधती थीं। वाशिंग मशीन की तरफ इशारा करते हुए कहा- ऐसी कोई चीज नहीं, जो हमारे यहां नहीं है।’ पूछ लिया- तो ये यहां क्या कर रही है?’ बोले- देख नहीं रहे हो, छांछ बना रही है!’ देखा मक्खन निकल रहा था। बाद में पता चला कि सच्ची में उन्हें नहीं मालूम था कि वाशिंग मशीन से कपड़े धोए जाते हैं। उन्होंने तो किसी के यहां इस तरह का ही कोई काम करते देखा था तो छांछ का आइडिया दिमाग में आया। कपड़े भी धोए जा सकते हैं’, यह बता कर उनका दिल नहीं तोडऩा चाहता था।
भ्रष्ट और नाकारा नेता
ये इतनी मशीनी बातें इसलिए आज याद आ गईं कि देश की जनता के हाथ में वोट की तरह, आज भी मोगरी है, क्योंकि वाशिंग-मशीन हर एक के बूते से बाहर है और भरोसा भी नहीं जम पा रहा है। आम आदमी को पछीट कर या रगड़ कर गंदगी साफ करने की आदत है, फिर भी वाशिंग मशीन का मोह कभी-कभार उपजता भी था तो उसकी बदनामी से लोगों ने हाथ खींच लिए हैं। लोगों को अपने सामथ्र्य पर मशीन से ज्यादा भरोसा है और फिर यह महंगा सौदा है, जो हर एक के बस में नहीं है। पछीट कर या मोगरी से कूट कर आम आदमी को वही सुख मिलता है, जो किसी बेईमान, भ्रष्ट और नाकारा नेता को हरा कर! (लेखक के ये निजी विचार हैं)