क्यों फंसे दिल्ली के सीएम Arvind Kejriwal ?

लेखक
संजय गोस्वामी

सत्ता पाना सिर्फ निजी लाभ के लिए न हो बल्कि जनता की सेवा करने और भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकने के लिए हो, आज दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल (Arvind Kejriwal ) अपने ही कार्यों से फंस गए आखिर शराब को अवैध रूप से बेचने की जरुरत ही क्या थी जो परिवार को उजाड़ देता है बिहार में तो नीतीश कुमार ने बहुत पहले ही राज्य में शराब को बैन कर दिया इतना ही जनता की चिंता होती तो बन्द कर देना चाहिए था गलत तरीक़े से आबकारी नीति बनबाना और देश के रेवेन्यू पर नुकसान पहुँचाना क्या उचित है, ऐ नशा का चीज है इसमें सरकार को जानकारी होना चाहिए जो नहीं दी गई,क्योंकि ऐ कोर्ट ने फैसला दिया है ।

इसमें मुझे नहीं लगता किसी पार्टी का दोष है ये ईडी की कार्यवाही है इस मुद्दा को पहले कांग्रेस ने ही उठाया और आज कांग्रेस उसकी वकालत कर रही है दरअसल आम आदमी पार्टी ने जो जनता से वादा किया वो पूरा करने में हो सकता है गलत राह पर चल दिए आम आदमी पार्टी का जन्म तो कांग्रेस को उखाड़ फेंकने के लिए हुआ था लेकिन अब उसी के साथ चिपक गए और पंजाब कॉंग्रेस ने तो इसका विरोध भी किया है इसमें सत्ताधारी पार्टी का क़ोई रोल ही नहीं है अगर ऐसा होता तो श्री आना हजारे ने इसे उसकी गलती बताया है उन्होंने इस कदम की निंदा तक कर दी और वही सुप्रीम कोर्ट है जिसमें चंडीगढ़ के मेयर चुनाव में वोटिंग के काउंटिंग में बीजेपी के प्रत्याशी को पीठाशीन अधिकारी के रिजल्ट को पलट दिया और आप व कांग्रेस के उम्मीदवार को जीत दिलाई। दरअसल आज सत्ता में बने रहने के लिए साम, दाम, भेद, दण्ड पुरातन काल में राजा द्वारा अपनायी जाने वाली नीतियाँ हैं जिन्हें उपाय-चतुष्ठय कहा जाता है। चाणक्य (350-275 ईसा पूर्व) को कौटिल्य और विष्णुगुप्त के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने अपनी शिक्षा तक्षशिला (अब पाकिस्तान में) में प्राप्त की थी। वह मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में प्रधानमंत्री थे। कौटिल्य विश्व के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने राज्य के विस्तार एवं आंतरिक-बाहरी सुरक्षा की समुचित एवं व्यवस्थित नीति का प्रतिपादन किया था। जिन चार नीतियों व उपायों का वर्णन उन्होंने उस समय किया था वह आज भी उतनी ही प्रामाणिक हैं जितनी उस समय थी। आज-कल सत्ता पाने के चक्कर में साम, दाम, भेद और दंड का रास्ता अपनाना किसी की पार्टी तोड़ कर अपनी पार्टी बनाना सत्ता पक्ष में विरोधीदल को अपने पाले में लेना जनादेश का अपमान है ऐ सत्ता पाने का लालच लोभ मनुष्य के जीवन के पराभव का पतन द्वार है।

यदि सत्ता लोकतान्त्रिक तरीक़े से चलती है तो सभी को सम्मान करना चाहिए यदि सत्ता का लोभ हो और देश सेवा की भावना से परे निजी लाभ हेतु या किसी को व्यक्तिगत तरीक़े से फायदा पहुँचाना हो तो इसमें परिवारवाद आ जाता है और अनीति पर पूरा दल ही लालची हो जाता है इस तरह की सत्ता मनुष्य के जीवन का ऐसा मानसिक विकार है, जो उसके उत्कर्ष में बाधा डालता है। सत्ता का लोभी व्यक्ति आचरण से हीन हो जाता है वह अपने स्वाभिमान को भुलाकर किसी कामना के वशीभूत होकर चाटुकार बन जाता है, उसका अपना व्यक्तित्व नष्ट हो जाता है और किसी से कुछ पाने की आशा में अपना सब कुछ गंवा देता है। लोभी व्यक्ति का चारित्रिक पतन हो जाता है। लोभ राजनीति का हो, किसी ऊंचे पद का हो, अर्थ प्राप्ति का हो, वासना के वेग का हो या किसी भी प्रकार से किसी से कुछ पाने की लालसा का हो, ठीक नहीं है। एक क्षणिक प्यास की तरह है जिसकी पूर्ति के लिए मनुष्य अनैतिक बन जाता है और गलत-काम करने लगता है। वह भूल जाता है कि उसके जीवन की कुछ मर्यादाएँ भी हैं। हम अपने जीवन में ऐसा ही अनुभव करते हैं कि थोड़े से सुख, थोड़े से लाभ, एक-आध ऊंची कुर्सी पाने के लिए ऐसे लोगों के पैर छूने लगते हैं जो स्वयं चारित्रिक दृष्टि से गिरे होते हैं। जब हम लोभ करते हैं, तो हमारा पूरा व्यक्तित्व दीन, हीन और दरिद्र बनकर खड़ा हो जाता है जिससे हमारी अपनी जीवनशक्ति शरीर में हो रहे जैविक परिवर्तन से बुरी तरह आहत होने लगती है और हमारे जीवन में जो स्वाभिमान की ऊर्जाशक्ति है वह दासत्व ग्रहण करने लगती है। लोभी व्यक्ति अपनी सारी मर्यादाओं और नैतिक मूल्यों को छोडक़र स्वयं स्वीकार करने लगता है कि हम दूसरी पंक्ति में खड़े लोग हैं, हम दूसरे की जयकार बोलनेवाले हैं और भाट की तरह दूसरे की प्रशस्ति के गीत गाने वाले लोग हैं। ऐसे सत्ता पाने की लोभी विचारों, का असर आशाओं, निराशाओं, भय, घृणा, क्रोध आदि मनोवेगों का प्रभाव पड़ता है जो हमारे शरीर के अंग-प्रत्यंग पर असर डालता है और हमारे स्वास्थ्य और मनोदशा पर पड़ता है, जो शरीर की एक-एक कोशिश (सेल) पर पड़ता है, जो हृदय और मस्तिष्क पर पड़ता है, रक्त पर पड़ता है, स्नायुतंत्र (नर्वस-सिस्टम) पर पड़ता है। हमारे विचारों का प्रभाव हमारे व्यक्तित्व में झलकता है। जितनी बार भी हम सत्ता पाने की कोशिश को गलत दिशा में करेंगे नहीं मिलने पर चिंता से घबरा उठते हैं अथवा उत्तेजित होकर व्यर्थ ही घृणापूर्ण क्रोध में भडक़ उठते हैं, उतनी बार हम मानों अपने ही शरीर में, मस्तिष्क से तथा प्रत्येक सेल से ही लड़ बैठते हैं। ऐसे लोग कभी भी समाज को दिशा नहीं दे सकते न ही खुद की उन्नति करने में सफल हो सकते हैं। लेकिन क्योंकि भारत की जनता ईमानदार, गूंगा-बहरा नहीं है, ऐसे में अगले चुनाव मेंअगर जनता चुन भी लेती है लेकिन अपनी ही पार्टी की जाल में फंसकर सत्ता चली जाती है उसके बाद राजनीतिक करियर खत्म हो जाएगा। कहते है राजनीति में कोई हमेशा के लिए दोस्त नहीं होता और कोई हमेशा के लिए दुश्मन नहीं होता। लेकिन पिछलें कुछ दिनों में इसी राजनीति में राजनीति गरिमा को भी ताड़-ताड़ कर दिया गया है। ऐसा नहीं है कि देश ने पहली बार राजनीति में भाषा की इतनी गिरी हुई मर्यादा देखी है, लेकिन अपना भूत से कोई भी सीख ना लेते हुए राजनेताओं का बार-बार उसी तरह से राजनीतिक भाषा को नीचे स्तर पर ले जाना ना ही सिर्फ देश की राजनीति के लिए एक खराब आज और कल होगा बल्की देश की छवि को भी इससे काफी गहरा धक्का लगता है।पुलिस फॉर्स तैनात था क्योंकि देव संस्कृती विश्वविश्व विद्यालय के कुलपति थे उन्होंने मुझे तुरंत बुलाया जितनी बातें बताई सब बिलकुल सत्य निकला उन्होंने राजनीति में राज्य सभा की सदस्य्ता को लातमार दी क्योंकि उन्हें मालूम था जितना सेवा अपनी गद्दी पर मातरम के आशीर्वाद से सेवा गरीब की भलाई कर सकते हैं उतना राजनीति में रह कर नहीं ऐ बात हमेशा हमें सुनाई देती है।
(ये लेखक के स्वतंत्र विचार हैं।)
अत: कोर्ट का फैसला सर्वमान्य होता है अगर केजरीवाल की गिरफ़्तारी को सत्ता से प्रेरित सरकार की कार्यवाही माने तो न्यायपालिका पर प्रश्न चिन्ह लग सकता है। लोकतांत्रिक प्रणाली में न्यायपालिका पर भरोसा करना चाहिए जो लोकतंत्र के आधार को सुरक्षित रखती हैं। न्यायपालिका कितनी बार सरकार के फैसले को बदल दी है उनका निर्णय तथ्यों के आधार पर होता है।