water crisis में अहम है जल प्रबंधन का सवाल

लेखक
ज्ञानेन्द्र रावत

समूची दुनिया में जल संकट ( water crisis) भयावह रूप अख्तियार करता जा रहा है। हकीकत यह है कि स्वच्छ पेयजल से वंचित समूची दुनिया में 4.4 अरब में से लगभग आधे लोग दक्षिण एशिया और उप सहारा अफ्रीका में रहते हैं। पानी की कमी से खाद्यान्न उत्पादन और आपूर्ति पर जो दुष्प्रभाव पड़ता है, वह समूची अर्थ व्यवस्था को खंड-खंड कर डालता है। यह सबसे खतरनाक स्थिति है जिसका मुकाबला आसान नहीं है। यह सबसे चिंतनीय सवाल है।

water crisis से पानी की मांग 40 फीसदी बढ़ जाएगी

इस पर विचार करना बेहद जरूरी है। यदि जल संकट ( water crisis ) के संदर्भ में ग्लोबल कमीशन आन द इकोनामिक्स आफ दी वाटर की रिपोर्ट की माने तो पानी की कमी और लगातार बढ़ती गर्मी के कारण आने वाले दो दशकों में जहां खाद्य उत्पादन में कमी आयेगी, वहीं भारत को 2050 तक खाद्य आपूर्ति में 16 फीसदी की कमी का सामना करना पड़ेगा। साथ ही खाद्य असुरक्षित आबादी में जहां 50 फीसदी की बढ़ोतरी होगी, वहीं इस दशक के आखिर तक समूची दुनिया में ताजे पानी की आपूर्ति की मांग 40 फीसदी तक बढ़ जायेगी। जल आपूर्ति उपलब्धता को लें, तो हमारे देश की जल आपूर्ति की उपलब्धता 1100 से 1197 बिलियन क्यूबिक मीटर के बीच है जो 2010 के मुकाबले 2050 तक पानी की मांग दोगुना होने की उम्मीद है। असल में यह सामाजिक और स्वास्थ्य का भी संकट है। क्योंकि पिछले 50 वर्ष में जल संबंधित आपदाओं जैसे बाढ़, सूखा, तूफान और अत्याधिक तापमान बढ़ोतरी के चलते दुनिया में लगभग 20 लाख लोगों की मौत हुयी है। यह स्थिति दिनोंदिन और खराब होगी। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि दुनिया में तकरीबन दो अरब लोग दूषित पानी पीने को मजबूर हैं जिससे दुनिया में पानी से संबंधित बीमारियों का खतरा तेजी से बढ़ रहा है। आंकड़े गवाह हैं कि हर साल लगभग 14 लाख से ज्यादा लोग जलजनित बीमारियों से मरते हैं। 7.4 करोड़ लोगों की उम्र गंदे पानी के उपयोग से जन्मी बीमारियों से घट रही है। इसमें घरों से निकलने वाले अपशिष्ट जल के समुचित ट्रीटमेंट की व्यवस्था न होना भी एक वजह है। 2070 तक इन जल संबंधी आपदाओं के कारण 70 करोड़ लोग विस्थापित होंगे। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता।
हमारे देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह रहा कि यहां जल प्रबंधन कभी मुद्दा रहा ही नहीं। फिर वह चाहे केन्द्र हो या राज्य, वहां जल प्रबंधन पर राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव भी एक अहम कारण रहा। जबकि हमारे यहां जल प्रबंधन, जल तकनीकविदों, विशेषज्ञों की कोई कमी नहीं रही है। उस स्थिति में जबकि हमारे देश में जल संचय की परंपरागत विधियां और प्रणालियों की भरमार थी। आजादी के बाद जब से जल प्रबंधन सरकार के हाथ में आया, आम भारतीय ने अपने परंपरागत जल प्रबंधन से खुद को अलग कर लिया और यह जिम्मा सरकार के ऊपर छोड़ दिया। नतीजा सबके सामने है। हर व्यक्ति पीने के पानी के लिए नगर निकाय के नल पर पूरी तरह निर्भर हो गया और उसने अपने पुराने जल स्रोतों कुंओं, तालाबों, बाबडिय़ों और जीवनदायिनी नदियों के महत्व को नजरंदाज करना शुरू कर दिया। नतीजतन कुंए, तालाब, बाबडिय़ां उसके लोभ का शिकार होकर इतिहास की वस्तु बनते चले गये और नदियां मैला ढोने वाली मात्र गाडिय़ां बनकर रह गयीं। तकरीबन तीन दशक पहले एक समय ऐसा भी आया कि नगर निकाय नल से जलापूर्ति करने में नाकाम होने लगे और मानव ने अपनी जरूरत के लिए पाताल के पानी को खींचना शुरू कर दिया। इसमें 60 के दशक में डीजल इंजन की क्रांति को नकारा नहीं जा सकता।
आज हालत यह है कि नगर निकाय जलापूर्ति करने में असमर्थ हैं और भूजल के अति दोहन का परिणाम देश की राजधानी सहित कोलकाता, हैदराबाद, अहमदाबाद, देहरादून, लखनऊ, कानपुर, वाराणसी, आगरा, गाजियाबाद, फरीदाबाद, मेरठ, प्रयागराज, ग्वालियर, अमृतसर, लुधियाना, चंडीगढ़, कोयम्बटूर, विशाखापटनम, विजयवाडा, बडो़दरा, जयपुर, जोधपुर आदि बड़े शहर पानी के मामले में भूजल पर ही निर्भर हैं। उसका परिणाम है कि इन शहरों का भूजल स्तर कहीं 20 तो कहीं 25 मीटर नीचे चला गया है और ये शहर डार्क जोन की श्रेणी में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं।
आज हमें केपटाउन से सबक लेना चाहिए और भविष्य कैसा होगा, इस दिशा में विचार करना होगा। देखा जाये तो असलियत में हमारे देश में भूजल 67 फीसदी सिंचाई और 80 फीसदी पीने के पानी की जरूरत पूरा करता है। देश की राजधानी दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान 100 फीसदी और उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, चंडीगढ़ और पुड्डिचेरी 60 से 100 फीसदी तक भूजल पर ही निर्भर हैं। देश के शहरों में 50 फीसदी से ज्यादा जलापूर्ति भूजल से ही होती है।
हरियाणा में तो 80 फीसदी जलापूर्ति भूजल से ही होती है। फिर अधिक पानी वाली गन्ना व धान जैसी फसलें भूजल स्तर के भयावह स्तर तक गिरने में प्रमुख भूमिका निबाह रही हैं। सबसे बड़ा दुर्भाग्य बढ़ती जनसंख्या है जिस पर अंकुश की बात बेमानी है। जाहिर सी बात है कि संसाधन सीमित हैं,वह चाहे जल हो, वनस्पति हो, वृक्ष हों या खाद्यान्न, उनके उपयोग की सीमा तय की जानी चाहिए। इस दिशा में वह चाहे जल जीवन मिशन सहित भारत सरकार की अनन्य योजनाओं और जल संरक्षण के प्रयासों की सफलता आबादी पर नियंत्रण, बेहतर वर्षा जल संचयन, नदी जल प्रबंधन और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा, जल स्रोतों तथा भूजल भंडारों का पेट भरे यानी जितना लो उससे अधिक धरती का पानी का भंडार भर दो व दैनंदिन जीवन में जल उपयोग में मितव्ययता के बिना असंभव है। इसके बिना जल संकट के समाधान की आशा बेमानी है।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।)