World Youth Skills Day : रोजगार का हुनर कौन सिखाएगा ?


लेखक
संजय वर्मा

World Youth Skills Day : बेटा आप बड़े होकर क्या बनोगे ? यह सवाल आमतौर पर हर बच्चे से कभी न कभी पूछा जाता है। आपसे भी पूछा गया होगा और संभव है आपने जवाब में डॉक्टर इंजीनियर शिक्षक या हवाई जहाज का पायलट बनने की इच्छा जताई हो। पर सोचिए यदि आप जवाब में कहते- मैं बड़ा होकर एक कारपेंटर बनना चाहता हूं या मकान बनाने वाला मिस्त्री बनना चाहता हूं तब क्या होता ? आपने यह जवाब नहीं देकर अपने बड़ों को एक बड़ी मुसीबत से बचा लिया !

World Youth Skills Day पर आज बात शिक्षा व्यवस्था की

असल में हमारे यहां पूरी शिक्षा व्यवस्था में बढ़ई , लोहार, दर्जी , मिस्त्री जैसे तमाम हुनर सिखाने के लिए किसी स्कूल में कोई व्यवस्था नहीं है। मजे की बात यह है कि बड़े होकर ज्यादातर बच्चे आज भी इन्हीं हुनर के इस्तेमाल से अपनी रोजी रोटी कमाते हैं। आज भी खेती के बाद ज्यादातर लोग जीवन यापन के लिए इसी तरह के छोटे मोटे हुनर आधारित रोजगार करते हैं। हैरानी की बात है कि आजादी के 77 साल बाद भी किसी ने नहीं सोचा कि ये तमाम छोटे मोटे रोजगार करने वाले लोग इसके लिए आवश्यक हुनर कहां से सीखेंगे ? पहले हमारे पास इसके लिए वर्ण व्यवस्था थी , हम दावा करते हैं कि हमने उस घृणित वर्ण व्यवस्था को खत्म कर दिया जो कहती थी सुतार का बेटा सुतार ही बनेगा , मगर सुतार बनने की शिक्षा स्कूलों में नहीं देने का सीधा मतलब उसी वर्ण व्यवस्था का समर्थन करना है जो कहती है लोहार बनने के लिए आपको लोहार के घर में ही पैदा होना होगा। इस तरह हुनर को स्कूली शिक्षा में शामिल नहीं कर के एक तरफ तो हमने वर्ण व्यवस्था को समर्थन दिया , दूसरी तरफ रोजगार के संभावित अवसर खत्म कर दिए।
भारत ने इस लापरवाही की कीमत चुकाई है। आज भारत में काम करने वाले आबादी दुनिया में सबसे ज्यादा है। इसे डेमोग्राफिक डिविडेंड कहते हैं पर इन करोड़ों हाथों के लायक हमारे पास कोई काम नहीं है । उधर उद्योगपति शिकायत कर रहे हैं कि हमें प्रशिक्षित कामगार नहीं मिल रहे ।भारत जिस जवान आबादी को डेमोग्राफिक डिविडेंड कह रहा है वह बेरोजगारों की एक बड़ी फौज बन कर तबाही भी ला सकती है। चीन की तरह की मैन्युफैक्चरिंग इकोनामी बनाने का सपना देखना अच्छी बात है पर इसके लिए प्रशिक्षित कामगार कौनसा स्कूल बना रहा है , यह भी सोचना चाहिए।
सोचना चाहिए कि क्यों हमने हुनर को स्कूली शिक्षा में जगह नहीं दी । शायद यह भी वर्ण व्यवस्था की वजह से हुआ जिसने हमारे समाज में दिमाग का काम करने वालों को ऊंचे स्थान पर और हाथ का काम करने वालों को सबसे नीचे स्थान पर रखा । इसका परिणाम यह हुआ कि वे लोग जो हाथ का काम करते हैं वह भी अपने बच्चों को इस रोजगार से दूर रखना चाहते हैं, उन्हें ऑफिस का चपरासी बनना मंजूर है , लेकिन एक सफल टेक्नीशियन बनना नहीं जिसमे चपरासी की नौकरी के मुकाबले कहीं अधिक पैसा है।
किसी खास काम को समाज कितना पारिश्रमिक या कितना सम्मान देगा यह एक जटिल प्रश्न है । कभी-कभी इसके पीछे उस काम को करने में लगने वाली मेहनत या योग्यता के अलावा सामाजिक इतिहास के कारण भी होते हैं । हमारे यहां हाथ के काम करने वालों को ज्यादा मेहनत करने के बावजूद हमेशा से कम पैसा दिया जाता है । तमाम विकसित देशों में दिमाग और हाथ का काम करने वालों के बीच तनख्वाह का फर्क अधिकतम तीन गुना होता है जबकि हमारे यहां यह हजारों गुना है ।
वजह जो भी हो अब समय आ गया है कि भारत के स्कूलों में पढ़ाई जाने वाले निरर्थक सूचनाओं को रटवाने के बजाय बच्चों को हाथ के हुनर सिखाए जाएं ताकि वे कम से कम अपने लिए एक छोटा-मोटा रोजगार ढूंढ सकें । वैसे भी साइन थीटा कॉस थीटा पढक़र आपने आखिर इसका क्या इस्तेमाल किया , वल्र्ड स्किल डे पर सोचना चाहिए ।
(ये लेखक के स्वतंत्र विचार हैं)